भाव पल्लवन : ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’


‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’


पल्लवन : पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुख नहीं पाता क्योंकि वह अस्तित्वहीन है। उसका सुख-दुःख जीवन-मरण, लाभ-हानि, सब कुछ आश्रयदाता के हाथों में है। पराधीनता का दंश सदैव उसे डसता रहता है। वह स्वयं को अपमानित, उपेक्षित व कुंठित पाता है। सोने के पिंजरे में दाना चुगने वाला पक्षी भी जब उन्मुक्त गगन में उड़ने की चाह रखता है, तो मनुष्य भला पराधीन कैसे रह सकता है? इतिहास साक्षी है कि जब-जब कोई राष्ट्र पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा गया, वहाँ की जनता ने प्राणों का मोल चुकाकर अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की।

कवि भारत भूषण ने इन पंक्तियों में कितना सुंदर कहा है :

हँसी फूल में नहीं

गीत कंठ में नहीं,

हँसी, गंध, गीत सब मुक्ति में है।

मुक्ति ही सौंदर्य का अंतिम प्रमाण है ।