सपनों के से दिन – सार


प्रस्तुत कहानी ‘सपनों के से दिन’ में लेखक गुरदयाल सिंह ने अपने बचपन के दिनों की खट्टी-मीठी यादों का अति सजीव तथा मनोहारी वर्णन किया है। बचपन में लेखक और उनके दोस्त सभी एक जैसे थे। सभी दिनभर खूब मस्ती करते और चोट लग जाने पर जब घर पहुँचते तो माँ-बाप के द्वारा उनकी खूब पिटाई होती थी, लेकिन फिर भी अगले दिन वह खेलने पहुँच जाते थे। उनमें से अधिकतर स्कूल नहीं जाते थे। वे सभी बच्चे स्कूल व पढ़ाई को तो कैद समझते थे। खेल-कूद के ये चार दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। आज भी लेखक को वे दिन खूब याद आते हैं।

जब स्कूलों की छुट्टियाँ होतीं तो लेखक अपने ननिहाल जाता था। वहाँ नानी उसे खूब खिलाती-पिलाती व लाड़ करती थीं। दोपहर तक लेखक और उनके दोस्त खूब मस्ती करते। कोई पानी में कूद जाता तो कोई रेत के टीले पर चढ़कर रेत लपेटता और तालाब में कूद जाता था। जिन्हें तैरना नहीं आता और वे गहरे पानी में भी चले जाते तब बड़ी मुश्किल से उन्हें बचाया जाता। इस प्रकार छुट्टियाँ बीतने लगतीं। तब लेखक को अपनी पढ़ाई से सम्बन्धित काम की याद आने लगती थी। कुछ लड़के सोचते थे कि काम न करने के बदले में मास्टर जी से पिटना सस्ता सौदा है। लेखक भी ऐसे बहादुर लड़कों की तरह सोचता

लेखक का स्कूल छोटा-सा था। सुबह प्रार्थना के समय सभी लड़के कतार में खड़े रहते थे। जरा भी कतार टेढ़ी हुई, पी.टी. मास्टर प्रीतमचंद बाज की तरह लड़कों पर झपट पड़ते थे। वे स्काउट परेड भी कराते थे। थोड़ा-सा हिलने पर दंड देते, परन्तु अच्छा काम करने पर शाबाशी भी देते थे। लेखक को यह परेड करना बहुत अच्छा लगता। उसके मन में भी फौजी बनने की इच्छा जाग्रत हो चुकी थी। हेडमास्टर मदन मोहन शर्मा स्वभाव से बहुत नरम और हँसमुख थे। लेखक को नई कक्षा में जाने का शौक कभी नहीं जागा। उसे नई कापियों और पुरानी किताबों से अजीब सी गंध आया करती थी। उसे परेड ह्रिसल व बूटों की खटपट से दाएँ-बाएँ घूमना ही अच्छा लगता था। लेखक की आँखों के सामने बचपन के वो हँसते-खेलते दिन सजीव हो जाया करते हैं।