निबंध लेखन : परोपकार


वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे (परोपकार)


प्रस्तावना – भारतीय संस्कृति की सर्वदा से यह रीति रही है कि मानव मात्र के प्रत्येक कार्य में ‘बहुजन हिताय’ का आदर्श ओत-प्रोत रहे। हमारे देश की प्रचलित परंपरा के अनुसार मनुष्य का जन्म जनहित के लिए है। यह विश्वास इतना प्रबल इसलिए हुआ कि यहाँ की प्रकृति इसी पर बल देती है। वर्षा का जल अपनी शांति के लिए नहीं होता, नदियाँ अपने लिए नहीं बहतीं, फल को वृक्ष स्वयं नहीं खाते, इत्यादि बातों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि मानव मात्र को जनहित में लगे रहना चाहिए।

सृष्टि का आदि रूप और मनुष्य के गुण – सृष्टि के प्रारंभ में दानवों ने इतना उपद्रव मचाया कि संपूर्ण विश्व आकुल हो उठा। सभी विवश थे, कोई मार्ग शेष नहीं था। यदि महर्षि दधीचि की हड्डियाँ काम में न लाई गई होतीं, तो भला कैसे उद्धार हो सकता था? उनकी कहानी कौन नहीं जानता? उस पुण्यात्मा के शरीर की हड्डी से संसार का महान कल्याण हुआ। उस कहानी के पीछे परोपकार की भावना निहित है। दधीचि जैसे ऋषि और शिवि जैसे त्यागी को हमारी भारतीय संस्कृति नहीं भूल सकती। महाराज विक्रमादित्य की कहानी को कौन भूल सकता है? संतों का जीवन परोपकार की भावना को लेकर चलता है। ‘परोपकार ही जीवन है’ सिद्धांत को मानव मात्र को मानना चाहिए।

वर्तमान काल और प्राचीन आदर्श – यह एक श्रेष्ठ सामाजिक गुण है। प्राचीन काल में परोपकार करना प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता था। यही कारण है कि प्राचीन काल का समाज सुख और शांति से परिपूर्ण था। वर्तमान काल के मानव के हृदय से परोपकार की भावना निकल गई है। इस समय का मानव अपने सुखों और अपनी सुविधाओं की जितनी चिंता करता है, उतनी वह दूसरों की नहीं करता। परोपकार, वास्तव में मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। किसी मनुष्य के हृदय में जब इसका समावेश होता है, तो उसके साथ-ही-साथ न जाने कितने गुण उसके हृदय में प्रविष्ट हो जाते हैं। परोपकारी मनुष्य दूसरों को सुख-शांति तो पहुँचाता ही है, वह स्वयं भी संसार में अमर हो जाता है। संसार में कितने ऐसे मनुष्य हो गए हैं, जिनका नाम प्रलयकाल के अंत में भी रहेगा। महाकवि तुलसीदास जी ने कहा है कि दुष्टों की वाणी पर ध्यान न देते हुए भी संतजन मनुष्य के लिए उत्पन्न होते हैं और मनुष्य के लिए मरते हैं। कपास स्वयं दुःख सह लेती है, किंतु मानव मात्र का तन आच्छादित करने में प्रयत्नशील रहती है। यही भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव का आदर्श है।

उपसंहार – यदि प्राचीन काल से लेकर आज तक मानव में केवल स्वार्थ को भावना ही निहित होती और वह परहित के लिए प्रयत्नशील न होता, तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि मानव जाति का सर्वनाश हो जाता। नित्य ही युद्ध की आशंका मनुष्य को खा डालती। आज इस बात की आवश्यकता है कि जन-जन में परोपकार के मंत्र का समावेश हो, तभी मानव का हित होगा और वे सुख से रह सकेंगे। मनुष्य मात्र को स्वार्थ की भावना नष्ट करके परोपकार में लग जाना चाहिए और इस सिद्धांत को याद रखना चाहिए कि वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे ।