लेख : बेकारी की समस्या
बेकारी की समस्या
समस्याओं के देश भारत में आज जो एक बहुत बड़ी समस्या सभी को पीड़ित आतंकित
किए हुए है, वह है बेकारी की समस्या। इसने हजारों-लाखों युवाओं को पथभ्रष्ट कर के उन्हें
अनेक प्रकार की अराजक विषमताओं का शिकार बना रखा है। बेकार युवाओं से भरे अनेक परिवार मासिक स्तर पर उत्पीड़न भरा जीवन जीने को विवश हो रहे हैं। केवल इस कारण नहीं कि उन परिवारों के युवा सदस्य देकार हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे बेकार युवक अन्य कई प्रकार की आधि-व्याधियों के शिकार होकर न केवल उनके सामने बल्कि आस – पड़ोस एवं जीवन-समाज के सामने भी कई तरह की समस्याएँ खड़ी कर के सभी की सिरदर्दी का कारण बनते रहते है।
बेकारी युवा मन-मस्तिष्क को उलटी राहों पर चलने को बाध्य कर देती है। आज जो हिंसा, तोड़-फोड़, मारधाड़, धोखाधडी आदि कई तरह के अपराधों को विस्तार मिल रहा है। इस का एक कारण यह बेकार युवा मानसिकता भी हैं। बेकार युवा मानसिकता कई तरह के नशों का शिकार होकर स्वयं तो बरबादी की राह पर बढ़ ही रही है, अपने घर-परिवार और समाज को भी उसी राह पर बरबस ढकेल रही है। कहावत भी है कि खाली मन-मस्तिष्क भूतों का डेरा। सो बेकार युवाओं के मन-मस्तिष्क के वे भूत समय-समय पर प्रकट होते रह कर कई तरह के बवण्डर खड़े करते रहते हैं। उन सब से बचाव के लिए बेकार मन-मस्तिष्कों को काम-धन्धों पर लगाना बहुत ही आवश्यक है।
आखिर इतनी और सुरसा की आँतों के समान निरन्तर बढ़ती ही जा रही बेकारी का कारण क्या है? विचारकों का मानना है कि जनसंख्या की अवाध वृद्धि इसका एक प्रमुख कारण है। जिस अनुपात से शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है, औद्योगीकरण की झोंक में परम्परागत
काम-धन्धों का अन्त हुआ है, जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हुई और होती जा रही है, प्रयत्न
कर के भी उस अनुपात से काम-रोजगार की व्यवस्था संभव नहीं हो पाई। हालाँकि आज सरकारी और अर्द्ध सरकारी या सरकार समर्थित अथवा अनुदान प्राप्त प्रतिष्ठानों में काम के अनुपात से बहुत अधिक कर्मचारी भरे हुए हैं, काम न होने या बहुत कम होने के कारण वे चाय-पान, खा-पी, गप्पें लगा और मटरगश्ती करके मोटी तनखाहें आदि प्रायः मुफ्त में पा रहे हैं, फिर भी जनसंख्या के अनुपात से संख्या कम ही है। अतः स्वभावतः बेरोजगारी निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। उसका कोई हल नज़र नहीं आता।
एक अन्य बड़ा और प्रमुख कारण है शिक्षा व्यवस्था का रोजगारोन्मुखी न होना। उपलब्ध
कामधन्धों में मात्र डिग्रियों – डिप्लोमों को महत्त्व दिया जाना न कि योग्यता को। फलतः जिस किसी भी तरह कोई डिग्री – डिप्लोमा हासिल कर के प्रत्येक युवक ऑफिस का बाबू बन जाना चाहता है। मेहनत-मशक्कत का कार्य करना न तो वह जानता है और न करना ही चाहता है। दफ्तरों में उतनी रिक्तियाँ निकल नहीं पातीं कि सभी को रखा जा सके। यदि शिक्षा-व्यवस्था बुनियादी या रोजगारोन्मुखी होती, तो युवाओं को आरम्भ में ही मेहनत – मशक्कत करनी पड़ती और इस प्रकार एक अभ्यास सा बन जाता। तब वे रोजगार पाने के लिए किसी भी तरह का काम करने को तत्पर दिखाई देते। शिक्षा व्यवस्था ने युवा मानसिकता को निरा बोदा और परम्परागत उद्योग-धन्धों तक से विमुख कर के रख दिया है। इन कार्यों तक से भी कि जो उनकी शिक्षा, रोटी-कपड़ा आदि के आधार बने रहे और अब भी बने हुए हैं। ऐसे में बेकारी का सैलाब आवश्यक है। एक अन्य कारण यह भी माना जाता या हो सकता है कि शिक्षा-व्यवस्था और योजनाओं में कोई ताल-मेल नहीं रखा जाता। यदि यह ताल-मेल भी रखा जा सकता तो बहुत हद तक बेकारी की समस्या का समाधान संभव हो सकता था।
परम्परागत उद्योग की समृद्धि, उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रति उत्साह हीनता, राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, सुविधाभोगी मानसिकता का निर्माण, नेतृवर्ग की दिशा-हीनता और स्वार्थपरता, स्वयं धनी और सब से ऊँचा बन जाने की लालसा अधिकाधिक यंत्रों का प्रयोग और कम्प्यूटरीकरण की प्रवृत्ति आदि बातों को भी बेरोजगारी बढ़ने का कारण स्वीकार किया
जाता है। यदि इन और इन जैसी प्रवृत्तियों पर किसी तरह अंकुश लगाया जा सके, इन्हें परिश्रमी जीवन की तरफ मोड़ा जा सके तो भी इस समस्या के निराकरण में बहुत सहायता मिल सकती है।
बेकारी की समस्या से निपटने के लिए जनसंख्या पर कठोर नियंत्रण एवं अनुशासन
सब से बड़ी और पहली आवश्यकता है। उसके बाद एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण तो आवश्यक
है ही, नेतृवर्ग की सच्चरित्रता और आदर्श रूप भी आवश्यक है। शिक्षा व्यवस्था को बदल कर
समय की मांग के अनुरूप व्यवसायोन्मुखी बना कर भी बेकारी के निराकरण में बड़ी सहायता
सफलता पाई जा सकती है। इसी तरह स्थानीय स्तर पर परम्परागत काम – धन्धों का आधुनिकीकृत रूप में पुनरुद्धार, कुटीर उद्योगों की स्थापना आदि कर के भी बेकारी पर काबू
पाया जा सकता है। सरकारी या गैर सरकारी स्तरों पर जो कई तरह की योजनाएँ बनाई और
चलाई जाती है, उन का समायोजन करते समय पढ़े-लिखे और अनपढ़ सभी तरह के बेकारों
की आवश्यकता का ध्यान रखकर उनमें निरन्तरता और ताल-मेल बनाए रखना भी लाभदायक हो सकता है ऐसा करके ही हम देश की युवा शक्ति को बेकार नष्ट होने से बचा कर, राष्ट्रहित में उसका सदुपयोग कर पाने में पूर्ण सफल हो सकते हैं। स्यात् अन्य कोई उपाय नहीं।