दशावतार : कच्छपावतार
पुराने समय की बात है – देवताओं और राक्षसों में आपसी मतभेद के कारण शत्रुता बढ़ गई। आए दिन दोनों पक्षों में लड़ाई होती रहती थी। एक दिन राक्षसों के आक्रमण से सभी देवता भयभीत हो गए। वे भागते-भागते ब्रह्मा जी के पास गए।
ब्रह्मा जी की राय से सभी लोग जगद्गुरु की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे। देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा – “देवताओ! समुद्र मंथन की तैयारी करो। समुद्र मंथन के अंत में अमृत निकलेगा। उसे पीकर तुम लोग अमर हो जाओगे।” यह कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
इसके बाद देवताओं ने बलि को नेता मानकर वासुकि नाग को रस्सी और मन्दराचल पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र मंथन शुरू किया। परन्तु जैसे ही मंथन शुरू हुआ कि मन्दराचल ही समुद्र में डूबने लगा। सभी लोग परेशान हो गए।
अंत में निराश होकर लोगों ने भगवान का सहारा लिया। भगवान तो सब जानते ही थे। उन्होंने हंस कर कहा – “सब कार्यों के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। बिना उनकी पूजा के कार्य सिद्ध नहीं होता।”
यह सुनकर वे लोग गणेश जी की पूजा करने लगे। उधर गणेश जी की पूजा हो रही थी, इधर लीलाधारी भगवान ने कच्छप रूप धारण कर मन्दराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया।
ततपश्चात समुद्र-मंथन शुरू हुआ। मथते-मथते बहुत देर हो गई। अमृत न निकला। तब भगवान ने सहस्त्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों तरफ़ से मथना प्रारंभ किया। उसी समय हलाहल विष निकला, जिसे पीकर भगवान शिव नीलकण्ठ कहलाए।
इसी प्रकार कामधेनु, उच्चैः श्रवा नामक घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएं, भगवती लक्ष्मी, वारुणी, धनुष, चन्द्रमा, शंख, धन्वन्तरि और अंत में अमृत निकला।
अमृत के लिए देवता और दानव दोनों झगड़ने लगे। तब भगवान ने अपनी लीला से अमृत देवताओं को ही दिया। अमृत पीकर देवता लोग अमर हो गए। वे युद्ध में विजयी हुए।
विजयी देवता बार-बार कच्छप भगवान की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा – “देवताओ! जो लोग भगवान के आश्रित होकर कर्म करते हैं; वे ही देवता कहलाते हैं। उन्हें ही सच्ची सुख-शान्ति और अमृत या अमृत-तत्व की प्राप्ति होती है। किन्तु जो अभिमान के सहारे कर्म करते हैं; उन्हें कभी भी अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती।” यह कहकर कच्छप भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
भक्तों के परम हितैषी कच्छप भगवान को हम सब प्रणाम करते हैं _/\_