क्या वाकई मुस्कुराते चेहरों में रब्ब बसता है ?

सुनते आए थे कि मुस्कुराते चेहरों में रब्ब बसता है।

परन्तु क्या यह सच में उतना ही व्यावहारिक है, जितना सुनने में लगता है ? कई बातें सुनने में बेहद खूबसूरत लगती हैं और व्यवहार में कितनी बदसूरत !

कहते हैं कि जीवन में कोई एक ऐसा इंसान अवश्य होना चाहिए, जिसके साथ आप अपने मन की हर एक बात साझा कर सकें ! परन्तु इस दुनिया में जहां रिश्तों पर भी राजनीति इस प्रकार हावी है, क्या कोई ऐसा होता है जो कि आप पर ही प्रश्न न खड़े करने लगे !

एक और सच्चाई – बच्चों से सब प्यार करते हैं और बूढ़ों की सब उपेक्षा ! एक बनता है….. दूसरा मिटता है। बच्चे के आते 13 दिन और बूढ़े के जाते 13 दिन….यह कैसा अजीब जीवन दर्शन है ? कैसे अजीब जीवन के सच हैं ? पढ़े लिखे चिंतक भी कुछ परिस्थितियों से निपटने की कला नहीं सीख पाए।

आज के समय में जो मुँह लटका कर बैठा हो, वह सहानुभूति का पात्र कहलाने की उम्मीद रखता है। पर क्या सच में निराश, दुःखी एवं भावनात्मक रूप से बिखरे हुए रहना ही जीवन जीने का ढंग है ?

क्या हमारी हमारे प्रति इतनी भी जिम्मेदारी नहीं बनती कि हम अपने आप को निराशा से बाहर निकाल कर खुश रहने की कोशिश कर सकें ?

ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए कि हम अपने आप को खुश रखने का काम भी दूसरों के जिम्मे छोड़ दें।

यह सदा सर्वदा से हमारी ही जिम्मेदारी थी, है और रहेगी।

विचारणीय है यह तथ्य !