पुस्तकालय मानव जीवन के विकास तथा प्रगति का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह ज्ञान की किरणें प्रसारित करता है। विश्व-साहित्य की धरोहर का संरक्षक है। प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकालय की अनिवार्यता है। बेकन के शब्दों में, “पुस्तकालय ऐसे मंदिरों की तरह है, जहाँ प्राचीन संतों-महात्माओं के सद्गुणों से परिपूर्ण तथा निर्भात पाखंड रहित अवशेष सुरक्षित रखे जाते हैं।” पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘पुस्तक आलय’ अर्थात पुस्तकों का घर। वह भवन जिसमें अध्ययन और संदर्भ के लिए पुस्तकें रखी गईं हो या वह भवन या स्थान जहाँ से सर्वसाधारण को पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलती हों। ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी के मन में श्रद्धा और एकाग्रता होनी चाहिए। भारत में पुस्तकालयों की परंपरा प्राचीन काल से ही मिलती है। यहाँ के नालंदा, तक्षशिला और बल्लभी पुस्तकालय विश्वविख्यात हस्तलिखित पांडुलिपियों के रत्नागार थे, जिन्हें ज्ञान के दुश्मन मध्यकालीन बादशाहों ने निर्ममता से जलवा दिया था। मुद्रण के साथ भारत में पुस्तकालयों की लोकप्रियता बढ़ी। भारत में पुस्तकालयों का विकास शुरू हुआ। राज्य सरकारों के सहयोग से जिला पुस्तकालय स्थापित हुए। जैसे दिल्ली में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी। जिस प्रकार सिनेमाघर के चित्रपट स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करते हैं, उसी प्रकार पुस्तकालयों की पुस्तकें जनता का मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन करती हैं। पुस्तकालय के उपन्यास, कहानियाँ, कॉमिक्स हास्य-व्यंग्य कथाओं की पुस्तकों का सर्वाधिक प्रयोग इसका प्रमाण है। पुस्तकालय ज्ञान का तीसरा नेत्र खोलता है। तुलनात्मक अध्ययन करने का अवसर प्रदान करता है। पुस्तकालय में छात्रों द्वारा पुस्तकों पर रेखाएँ लगाना, उन्हें चिह्नित करना, पृष्ठ फाड़ना या उनके चित्र काटना धरोहर से विश्वासघात है। अतः पुस्तकालय जो अध्ययनशील वातावरण से सुधित है, इसे दूषित न करें बल्कि मानसिक क्षुधा-शांति का साधन मानना चाहिए।