भारत की पंचवर्षीय योजनाएं

लेख – भारत की पंचवर्षीय योजनाएं

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने देश के क्रमिक विकास का लक्ष्य सामने रखकर एक ‘योजना आयोग’ स्थापित किया गया। जिसके अंतर्गत अभी तक आठ पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जा कर देश के यांत्रिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक आदि हर तरह के अनेक विकास कार्यों को पूरा कर चुकी हैं या फिर लगातार कर रही हैं। इन योजनाओं को इस उद्देश्य से लागू किया गया है कि भारतीय आम जन के जीवन का स्तर ऊपर उठ सके। आम जनों को सामाजिक न्याय मिल सके। जन – साधारण और दुर्बल वर्गों का भी अन्य वर्गों के साथ-साथ उचित एवं सार्थक विकास हो सके। फलतः एक उन्नत समाजवादी व्यवस्था को भारतीय जनतंत्र में पूर्ण रूप से विकसित किया जा सके।

पहली पंचवर्षीय योजना के पूर्ण होने तक देश का वातावरण मानसिक स्तर पर इतना दूषित नहीं हुआ था, सो उसके फलितार्थ काफी उत्साहजनक माना गया। दूसरी योजना का परिणाम भी उतना बुरा नहीं माना गया, पर तीसरी योजना का परिणाम अपेक्षानुसार अच्छा न आ पाया। इस कारण चौथी योजना का आरंभ करते समय उस की रूपरेखा और क्रियान्वयन विधि पर पुनर्विचार आवश्यक माना गया। अप्रैल 1968 से आरंभ होने वाली इस योजना के लिए कुल चौबीस सौ करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया था। कृषि – कार्य, पशु पालन, वन – विकास, सहकारिता, बिजली, परिवहन, परिवार नियोजन एवं औद्योगिक उत्पादनों में वृद्धि एवं विकास को आयोजन का विषय बनाया गया। सन् 1974 से आरंभ पांचवीं पंचवर्षीय योजना में 5% विकास दर प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया। इस लक्ष्य को पाने के लिए निजी तथा अन्य विभिन्न क्षेत्रों, सामाजिक क्षेत्रों में विनियोजन, संस्थाओं को सुधारना ताकि उत्पादन बढ़ सके एवं टैक्स – मुद्रा संबंधी कार्यों को प्रमुखतः महत्त्व दिया गया।

सन् 1980 ई. से छठी विकास – योजना की रूपरेखा पर कार्य होने लगा। इसमें वर्तमान आर्थिक स्थिति को बनाए रखते हुए मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने जैसी बातों को प्रमुखता प्रदान की गई। इसी तरह संसाधनों के दक्षतापूर्ण उपयोग, आर्थिक एवं शिल्प क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता, गरीबी – बेरोजगारी में कमी लाने, ऊर्जा के देसी साधनों के विकास, सामाजिक विकास के लिए जनसंख्या नियंत्रण, पर्यावरण –  संरक्षण एवं सुधार, शिक्षा – संचार जैसे कार्यों को महत्त्व देने जैसे विषयों पर इस योजना में प्रमुखता से ध्यान रखने का निर्णय किया गया। नब्बे हजार करोड़ की इस योजना में उस समय प्राप्त अर्थव्यवस्था में 5.3% बढ़ोतरी का संकल्प किया गया। वित्तीय अनुशासन रखने, व्यर्थ खर्चे रोकने जैसी बातें भी इसी योजना – काल में उभर कर सामने आ पाईं।

सन 1985 से सातवीं पंचवर्षीय योजना का आरंभ हुआ, जिसे विशेष, बड़ी और महत्वकांक्षी योजना माना गया। इसमें कुल खर्च का अनुमान और प्रावधान  ग्यारह हजार सात सौ निन्यानवे (11799) करोड़ का रखा गया, जबकि वास्तविक खर्च कहीं अधिक हुआ। इस योजना का मुख्य लक्ष्य था गरीबों के लिए आधारभूत सेवाएं – सुविधाएं बढ़ाना, आम जनता के गिरते स्तर को ऊंचा उठाना और क्षेत्रीय असंतुलन मिटाकर विकास कार्य सभी को सुलभ कराना रखा गया था। इसी दिन औपचारिक शिक्षा – क्षेत्रों का विकास भी इसका एक लक्ष्य बनाया गया। इसके बाद सन् 1990 के मई माह में आठवीं विकास योजना का प्रारूप तैयार किया गया। वार्षिक विकास दर 5 5% निर्धारित की गई। इसमें ग्रामीण विकास, विदेशी संसाधनों की प्राप्ति और विदेशी व्यापार में वृद्धि, अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा योग्य उत्पाद, सेवाओं में कुशलता, आर्थिक अनुशासन, घाटे वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठान हटाना, शिक्षा – नीति में सुधार, परिवार – कल्याण जैसे अनेक मुद्दे सामने रखे गए। अभी तक इस योजना के क्रियान्वयन पर अबाध कार्य चल रहा है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि योजनाएं सदिच्छा और सद्भावना से परिचालित की गई। उद्देश्य भी स्पष्ट था – आम जन का कल्याण और समृद्धि। परंतु स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या यह सारे आयोजन जिन लक्ष्यों को सामने रखकर आरंभ किए गए थे, वे प्राप्त हो सके हैं? हमारा उत्तर है कि जिन लोगों के लिए योजनाएं बनाई गई थी उन लोगों को इनका रत्ती भर भी वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो सका। आम लोगों को मिली है महंगाई, जो इस कार्य की एक अनिवार्य परिणति है। मिला है भ्रष्टाचार, जिसने जीवन का काफिया और भी कस दिया है। सामाजिक असमानता और विषमता घटने के स्थान पर और बढ़ी है। योजनाओं का सारा फलितार्थ समर्थ वर्गों, ठेकेदारों और अफसरशाही की तिकड़ी की तिजोरियों में पहुंचा और अब भी पहुंच रहा है। इस कारण कई बार आम और विशेष सभी तरह के लोगों को कहते सुना जा सकता है कि अच्छा होता, लोगों को अपने – अपने ढंग से काम करने दिया गया होता। सब सारा फल घपलेबाजी में खो तो न जाता।

संपूर्णतया तो ऐसा कहा नहीं जा सकता कि पंचवर्षीय योजनाओं के कारण विकास – कार्य हुआ ही नहीं। अवश्य हुआ है, पर आशा के अनुरूप कतई नहीं। दूसरे शब्दों में यदि पूंजीगत प्रावधानों का ईमानदारी से संपूर्ण प्रयोग योजनाओं में ही किया गया होता, तो निश्चय ही जन – सामान्य को यथेष्ट लाभ हो पाता।