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ग़ज़ल : मां

माँ की ममता का नहीं कोई शुमार


माँ की ममता का नहीं कोई शुमार,

माँ है सन्ना-ए-अज़ल का शाहकार।

माँ से है गुलज़ार-ए-हस्ती में बहार,

माँ है ऐसा गुल, नहीं है जिसमें ख़ार।

माँ का कोई भी नहीं बेअमल बदल

यह हकीक़त है सभी पर आशकार,

माँ है वह गहवारा-ए-अमनो सुकूँ

जिस से है माहौल घर का साजगार।

माँ का है मरहून-ए-मिन्नत यह वजूद

है हमारी जिंदगी माँ पर निसार

माँ नहीं होती तो होता कहाँ,

जो हासिल है यह, आज माँ का प्यार।