अनुच्छेद लेखन : शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध
शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध
भारत में शिक्षक-शिक्षार्थी परम्परा सदियों पुरानी रही है। शिक्षक को ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है। गुरू अपना समस्त ज्ञान शिष्य को दे देता है। शिक्षक का उद्देश्य होता है कि उसका शिष्य उससे अधिक विद्वान बने। प्राचीन काल में शिष्य गुरू के सानिध्य में आश्रम में रहकर ज्ञान प्राप्त किया करते थे। शिक्षक की आज्ञा का पालन करना उनका मुख्य उद्देश्य होता था। शिक्षक के प्रति आदर, सम्मान और समर्पण हुआ करता था। वहीं शिक्षक भी अपने शिष्य में छिपी सभी प्रतिभाओं को उभारने का प्रयत्न करता था। वह अपने शिष्यों को अपने बच्चों की भाँति स्नेह और प्रेम किया करता था। तो कभी दंड भी दिया करता था, किन्तु उस दंड का उद्देश्य कभी भी उसके शिष्य का पतन या उसके प्रति उसके मन में द्वेष या क्रोध नहीं हुआ करता था वरन उसके दंड के माध्यम से भी वह उसे सीख प्रदान करना चाहता था और शिष्य के मन में भी दंड के कारण गुरू का मान-सम्मान कम नहीं होता था। वर्तमान समय में शिक्षक-शिक्षार्थी परंपरा में परिवर्तन हो गया है। आज शिक्षक का उद्देश्य मात्र पाठ्य वस्तु शिक्षार्थियों को प्रदान करना और अपना मानदेय प्राप्त करना है। चाहे शिक्षार्थियों को ज्ञानार्जन हो या न हो। यदि शिक्षार्थी अधिक जानना चाहते हैं तो ट्यूशन का प्रबंध कर दिया जाता है जिससे अधिक-से-अधिक धन लाभ हो, वहीं शिक्षार्थी वर्ग भी पैसा देकर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। इसी भावना के कारण शिक्षक-शिक्षार्थी परंपरा समाप्त होकर व्यापार का रूप लेती जा रही है जिसमें न गुरू के लिए मान-सम्मान है और न शिष्य के प्रति स्नेह और विकास की भावना । हमारा कर्त्तव्य है कि हमें इस भावना को मिटाकर पुन: एक बार प्राचीन गुरू-शिष्य परम्परा को लाना होगा और इसके लिए दोनों अर्थात शिक्षक और शिक्षार्थी का सहयोग आवश्यक है तभी वर्तमान में शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों में सुधार हो सकता है।