अनुच्छेद लेखन : बढ़ती महंगाई
बढ़ती महंगाई
यह तो सभी जानते हैं कि आज आम आदमी का जी पाना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। पहले कहा जाता था कि दाल-रोटी खाकर जी रहे हैं, पर आज घर-परिवार के लिए दाल-रोटी जुटा पाना लगातार कठिन होता जा रहा है। अमीर-गरीब, मध्य वर्ग सभी की हालत तंग और खस्ता होती जा रही है, लोग एक-दूसरे से कटने लगे हैं। कहीं खिलाना-पिलाना न पड़ जाए, यह सोचकर आज आदमी किसी अतिप्रिय को सामने देखकर भी अनदेखा कर देता है। रिश्वत, भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार लगातार बढ़ रहा है। इस सबके लिए व्यक्ति का अधिकाधिक स्वार्थी होते जाना तो जिम्मेदार है ही, महँगाई भी बहुत अधिक जिम्मेदार है। स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरों का हक मारना, काला बाज़ार, जमाखोरी की आदत, जनसंख्या के अनुपात से उत्पादन कम होना, युद्धों और अराजकता के भय से मुक्त होने के लिए शस्त्रों पर खर्च बढ़ जाना, कृषि योग्य भूमि पर बस्तियाँ बस जाना, प्रकृति से नाता टूट जाना जैसे महँगाई बढ़ने के कई कारण हैं। इस निरंतर बढ़ती हुई महँगाई के भूत से छुटकारा पाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि जनसंख्या और उत्पादन में संतुलन बना कर रखा जाए, जनसंख्या वृद्धि पर काबू रखा जाए, आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति कर पाने वाली योजनाएँ बनाई जाएँ। जमाखोरी, चोरबाज़ारी, मुद्रास्फीति को कठोरता से रोका जाए, सहज मानवीय और आपसी सहयोगपूर्ण दृष्टिकोण विकसित किया जाए। प्रकृति के साथ फिर से संबंध जोड़ और कृषि कार्य के योग्य भूमि की रक्षा करके ही महँगाई का निराकरण संभव हो सकता है।