लेख – राष्ट्रीयता बनाम अंतर्राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता बनाम अन्तर्राष्ट्रीयता

आज हम जिस युग में निवास कर रहे हैं, इसे अन्तर्राष्ट्रीयता का युग कहा जाता है। लेकिन जिन बुनियादी कारणों से किसी देश की राष्ट्रीयता को महत्त्व दिया जाता है, अन्तर्राष्ट्रीयता के क्षेत्र में वे कारण लागू नहीं हुआ करते। आज यदि अन्तर्राष्ट्रीयता की बात की और कही जाती है, तो इसका मूल कारण व्यापारिक ही अधिक है, मानवीय या भावनात्मक उतना नहीं। सभी जानते हैं कि आज तकनीक, प्राद्यौगिकी का विकास कुछ इस तरह और इस सीमा तक हो चुका है कि कोई भी एक राष्ट्र मात्र अपने बूते पर अपनी सभी तरह की आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकता। पारस्परिक आदान-प्रदान से सब राष्ट्रों का कार्य –  व्यापार चला करता है। दूसरे आज मानवीयता, उसकी सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर थोड़े बहुत प्रयास हो रहे हैं। बस, इसी दृष्टि से ही अन्तर्राष्ट्रीयता और उसके महत्व की चर्चा की जाती है।

यह भी सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीयता का क्षेत्र अधिक व्यापक एवं विस्तृत है और राष्ट्रीयता का उसकी तुलना में कहीं सिमटा हुआ और संकुचित है। फिर भी राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना की दृष्टि से इक्कीस ही बैठती है, उन्नीस नहीं। राष्ट्रीयता का उदय मात्र किसी देश नामक भूभाग को लेकर ही नहीं हुआ करता, यद्यपि उसका होना परमावश्यक एवं पहली शर्त है। उसके साथ-साथ उस भूभाग पर रहने वाला जन, उस भूभाग की प्रकृति और भूगोल, वहाँ पनपने वाली सभ्यता-संस्कृति, रीति-नीतियाँ, परम्पराएँ आदि भी जुड़ी रहा करती हैं। जन का उन सब के प्रति सहज समर्पित अनुराग का भाग तो परमावश्यक है ही, उस भूभाग के कण-कण घास-फूस, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, वनालियों के साथ आन्तरिक अनुराग एवं जुड़ाव भी परम आवश्यक हुआ करता है। इस सब के समुचित प्रभाव से, समन्वित अपनत्व एवं अपनाव से ही राष्ट्रीयता के भाव का उदय एवं विकास हुआ करता है। इन सब के प्रति अपनत्व एवं सहज समर्पण की भावना ही राष्ट्रीयता को परिपुष्ट किया करती है। जब तक व्यक्ति के मन में इन सभी के साथ अपनत्व, सभी के प्रति सहज समर्पण का भाव नहीं जागता, तब तक राष्ट्रीयता की पावन-पूत भावना का उदय कतई संभव नहीं हुआ करता।

जन-जन में राष्ट्रीयता की भावना बड़ी अच्छी मानी जाती है। वह इसलिए कि इस भावना के रहने पर ही कोई भूभाग या देश स्वतंत्र रहकर अपनी समग्र प्रगति एवं विकास के लिए कार्य कर सकता है। उसके और वहाँ निवास कर रहे जन-जन के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख में सम्मिलित किया करता है। यहाँ तक कि राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित एवं परिचालित हो कर अपने आप को उस पर न्यौछावर तक कर देने को तत्पर रहा करता है। इस तरह की सतत तत्परता से ही किसी राष्ट्र की अच्छी परम्पराएँ बन कर दूसरों को भी चकाचौंध कर दिया करती हैं। आदर्श और उदाहरण बन जाया करती हैं। सीमाओं पर शत्रुओं से संघर्ष कर रहे युवक सैनिक राष्ट्र भूमि के प्रति मातृभाव रख कर ही उस की सुरक्षा के लिए प्राण-पण की बाजी लगा दिया करते हैं। यह भी एक तथ्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में भी व्यक्ति की पहचान उसकी राष्ट्रीयता से ही बना एवं मान-सम्मान पाया करती है। इन सब कारणों से राष्ट्रीयता का अपना असन्दिग्ध महत्त्व है, मान और मूल्य है।

जहाँ तक व्यापक मानवीयता का प्रश्न है, उस दृष्टि से सारी मानव-संस्कृति और संस्कृति मूलतः एक है। बाहरी भेद प्रकृति और भूगोल के कारणों से ही आ गए माने जाते हैं। मानवीयता के दया, करुणा, स्नेह-सहानुभूति, भूख-प्यास आदि सभी भाव और सिद्धान्त भी एक हैं। सभी राष्ट्र सुख –  शान्ति और समृद्धि चाहते हैं; यह तात्विक भावदृष्टि भी कहीं विभेदपूर्ण नहीं। इन तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य, एक देश को दूसरे देश और एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से जोड़ने वाली है। सभी के सुख-दुःखों, शान्ति एवं समृद्धि के प्रयासों को एक बनाने वाली है। एक दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसे व्यापक विस्तार और विकास मिलना ही चाहिए। लेकिन वस्तु सत्य यह है कि उपर्युक्त तथ्यों को मानते-बखानते हुए भी कोई राष्ट्र और वहाँ का जन अपनी राष्ट्रीयता का मोह त्यागा नहीं करता। दूसरों की राष्ट्रीयता के श्रेष्ठ होने पर भी उस के श्रेष्ठता स्वीकार न कर अपनी राष्ट्रीयता को ही सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं समृद्ध कहा माना करता है। वह सर्वोत्तम भाव लेकर राष्ट्रीयता की सीमाएँ भी नहीं तोड़ या लाँघ पाता। इन जैसे कारणों के चलते ही अन्तर्राष्ट्रीयता की बात व्यापारिक तथा अन्य प्रकार के सामान्य आदान-प्रदानों तक ही सत्य है। अपने राष्ट्र की एक इंच भूमि भी किसी दूसरे राष्ट्र को दे नहीं सकता – यह भी राष्ट्रीयता का चरम सत्य है।

इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीयता का महत्व स्वीकार करते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए मुख्यतः राष्ट्र ही उसका आधेय एवं आराध्य हुआ करता है। ऐसा होना ही स्वाभाविक भी है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि राष्ट्रीयता कट्टर और अन्धभक्ति न बन जाए। ऐसा बनना बाकी विश्व के लिए तो घातक हुआ ही करता है, अपने राष्ट्र के लिए भी कम घातक नहीं हुआ करता। जर्मनी के हिटलर के पतन से प्रत्येक राष्ट्र और उस का जन इतनी सीख तो ले ही सकता है। सीख लेकर अपनी राष्ट्रीयता का सम्मान और रक्षा करते हुए अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति भी विनम्र व्यवहार करके सभी की सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी का कारण बन सकता है।।