संवाद – वाचन (मौखिक अभिव्यक्ति)
संवाद – वाचन
संवाद वाचन मंच पर नाट्य प्रस्तुति के रूप में, रेडियो नाट्य के रूप में या कक्षा में नाटक पढ़ने के रूप में किया जाता है। संवाद वाचन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है-उसकी भावानुरूप प्रस्तुति। संवादों के माध्यम से औपचारिक बातचीत की कुशलताएँ, भावानुकूल उतार-चढ़ाव, हाव-भाव प्रदर्शन, शुद्ध उच्चारण जैसी योग्यताएँ विकसित होती हैं। संवाद वास्तव में बातचीत का ही एक रूप है। जिस प्रकार बातचीत में हम अपने मन के भावों को सरलता से प्रकट कर देते हैं, उसी प्रकार संवादों में भी यह स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। संवाद बोलते समय ध्यान रखना चाहिए कि :
1. आप अपने को उसी पात्र में ढला हुआ अनुभव कर सकें चाहे वह राजा हो या भिखारी। जब तक उस पात्र में स्वयं को ढालेंगे नहीं, तब तक भावाभिव्यक्ति सफल नहीं हो सकती ।
2. नाटककार के निर्देशों के अनुसार सभी हाव-भावों को लाने का प्रयास करना चाहिए; जैसे-उदास होकर, सूखी हँसी हँसते हुए-व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ।
3. आवाज़ इतनी ऊँची हो कि सभी को आराम से सुनाई पड़े, तभी नाटककार का संदेश सब तक पहुँच पाएगा।
4. आवाज़ में आरोह-अवरोह को ध्यान में रखना होगा।
5. संवादों की गति यथावसर निर्धारित की जानी चाहिए। बहुत तेज़ या बहुत धीमी गति से बोले गए संवाद प्रभाव उत्पन्न नहीं करते ।
6. संवादों को स्पष्ट बोलना चाहिए। वाक्य के आखिरी शब्द भी स्पष्ट रूप से सुनाई देने चाहिए।
7. आवाज़ में कोमलता या कठोरता भावानुकूल होनी चाहिए।
8. यदि आवश्यकता पड़े तो लिखित नाटक में प्रयुक्त भाषा को दर्शकों के स्तर के अनुकूल बदल लेना चाहिए।
उदाहरण
अलग-अलग नाटकों से लिए गए भिन्न-भिन्न प्रकार के संवादों के कुछ नमूने :
1. इद्विचिरि: क्या सोच रहे हैं नाथ आप अपने ही घर में जाने पर विचार कर रहे हैं। (केरल का सुदामा- गोविंददास)
2. गुल्लू : (घबराकर) नहीं सरकार, यह कैसे हो सकता है? हाथ न रहेगा तो मैं खाना कैसे खाऊँगा? (तीन भिखारी -गिरिराज शरण अग्रवाल)
3. गांव : यह हुई बात ! भैया, हम दोनों सदा से एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। मेरी परिश्रमशीलता बनी रहे और तुम्हारी कार्यकुशलता और वैज्ञानिक दृष्टि। तुम भी बने रहो, मैं भी बना रहूँ। (गाँव और शहर-जगमोहन सिंह)
4. करुणा : (क्रोध से पैर पटकती हुई) कहीं भी जाएँ। यह न भूलो कि मैं महारानी हूँ और यह मेरा आदेश है। चलो, झोपड़ी को जलाकर आदेश का पालन करो। (काशीराज का न्याय)
5. कुंती : क्षणभर धीरज धरो पुत्र ! तनिक सूर्य भगवान अस्त हो लें और संध्या के अंधकार को भी तनिक गहरा हो लेने दो। सभी कुछ बताती हूँ। सुनो, मैं कुंती हूँ !
कर्ण : कुंती ! आप, अर्जुन की माता !!! (कर्ण और कुंती-रवींद्रनाथ ठाकुर)