वाचन (बोलना)


वाचन


वाचन या बोलना भाषा का वह रूप है जिसका प्रयोग सर्वाधिक होता है, तो भी हम इसे अनायास नहीं सीख पाते। वाचन के विभिन्न प्रकारों का अभ्यास करना पड़ता है, तभी उनमें दक्षता प्राप्त होती है। मौन वाचन का संबंध जहाँ द्रुतबोधन से है वहाँ सस्वर वाचन के अभ्यास से मौखिक अभिव्यक्ति की कुशलता विकसित होती है। संवाद और भावात्मक अंश इसके लिए अधिक उपयुक्त होते हैं। पाठ्यपुस्तक या अन्य स्रोतों से गद्यांशों को चुनकर उनका अभ्यास किया जा सकता है।

कथन संबंधी विभिन्न गतिविधियों की चर्चा यहाँ विस्तार से की जा रही है।

मौखिक – अभिव्यक्ति में दक्षता प्राप्त करने के लिए कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए :

1. मानक एवं शुद्ध भाषा का प्रयोग

2. सही उच्चारण

3. विनीत एवं स्पष्ट भाषा

4. स्थान एवं अवसरानुकूल भाषा का प्रयोग-व्यावहारिकता अधिक

5. विषयानुरूप प्रभावशाली भाषा।


1. भाषण, आशुभाषण, परिचर्चा, वाद-विवाद, मूल्यांकन


(क) भाषण

यह सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का युग है। भारत एक लोकतंत्रीय देश है। यहाँ अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने और जनमत को अपने पक्ष में करने में भाषण अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। विद्यालयी परिवेश में छात्रों को ऐसे अनेक अवसर मिलते हैं, जब वे इस कला का विकास करने में प्रयत्नशील हो सकते हैं।

ये गतिविधियाँ विद्यालयों में प्रायः प्रतियोगिताओं के रूप में आयोजित की जाती हैं। भाषण प्रार्थना सभाओं तथा विभिन्न कार्यक्रमों में भी प्रस्तुत किए जाते हैं। भाषण किसी भी विषय से संबंधित हो सकते हैं; जैसे-पर्यावरण संबंधी, देशभक्ति संबंधी, नैतिक मूल्यों से संबंधित आदि। प्रतियोगिताओं में भाषण देने के लिए एक ही विषय पर सभी वक्ताओं को बोलना होता है या फिर कुछ विषयों में से किसी एक का चुनाव करना होता है। बोलने का समय प्रायः दो से पाँच मिनट का होता है।

भाषण की तैयारी

भाषणकर्ता को विषय से संबंधित तैयारी पहले से ही करके जाना चाहिए, इससे कुछ विशेष लाभ होते हैं :

1. आत्मविश्वास बना रहता है।

2. बीच में रुककर सोचना नहीं पड़ता।

3. भाषण में गति बनी रहती है।

4. क्रम होने के कारण श्रोताओं का आकर्षण बना रहता है।

भाषण की तैयारी करते समय ध्यान देने योग्य बातें :

1. विषय के सभी पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए।

2. भावना एवं विचार दोनों का मेल होना चाहिए।

3. विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करना चाहिए ।

4. निष्कर्ष अवश्य निकलना चाहिए अर्थात् आप जो कहना चाहते हैं, वह श्रोतागण की समझ में आ जाना चाहिए।

5. कोई भी कथन विषय से हटकर नहीं होना चाहिए।

6. आरंभ आकर्षक होना चाहिए। इसके लिए उदाहरण, उद्धरण आदि से आरंभ किया जा सकता है।

7. विषय किसी भी प्रकार का क्यों न हो, उसे जीवन से जोड़ना चाहिए-घटनाओं, प्रयोगों आदि के माध्यम से।

8. अवसरानुकूल चुटकुलों, कविता आदि को प्रस्तुत किया जा सकता है।

9. प्रस्तुति को सजीव बनाने के लिए चित्रण शैली का प्रयोग हो सकता है।

प्रस्तुति

_ भाषण की प्रस्तुति करते समय आरंभ में उपस्थित श्रोताओं को संबोधित किया जाता है; जैसे- आदरणीय अध्यक्ष महोदय एवं मेरे प्रिय साथियो!

_ मुख्य अतिथि के लिए आदरणीय, सम्माननीय, पूज्य, माननीय आदि और अध्यापकों के लिए श्रद्धेय गुरुजन, आदरणीय अध्यापकगण आदि संबोधनों का प्रयोग किया जा सकता है।

_ आदरणीय व्यक्तियों के संबोधन के साथ जी का प्रयोग भी किया जाता है; जैसे माननीय सभापति जी।

_ संबोधनों का प्रयोग भाषण के बीच में भी यथावसर किया जा सकता है। इससे श्रोताओं की रुचि बनी रहती है।

_ श्रोताओं को बाँधे रखने के लिए बीच-बीच में इस तरह के प्रश्न भी किए जा सकते हैं-क्या आप सहमत नहीं होंगे? मैं आपसे पूछता हूँ, आप ऐसा करना पसंद करेंगे?

_ भाषा उपस्थित श्रोतागण के अनुरूप होनी चाहिए, किंतु एक स्तर अवश्य बनाए रखना चाहिए। भाषा कभी भी इतनी कठिन न हो कि क्या कहा गया यह समझ में ही न आए।

_ आवाज़ तेज़ और स्पष्ट होनी चाहिए।

_ आवश्यक उतार-चढ़ाव होना चाहिए, कभी जोश, कभी लय की गति और कभी शांत स्वर।

_ मंच पर आते समय चाल सीधी और विश्वास से भरी होनी चाहिए।

_ किसी एक पाँव पर ही बल देकर खड़ा नहीं होना चाहिए।

_ पुष्ट करने के लिए मुख-मुद्राओं व शरीर की भंगिमाओं का भी सहारा लिया जा सकता है।

उदाहरण-विषय : समय की हानि जीवन की हानि है।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय, निर्णायकगण एवं प्रिय साथियो !

का वर्षा जब कृषि सुखाने। समय चूकि पुनि का पछताने।

जी हाँ, जब फसल सूख जाए, तब वर्षा का क्या लाभ, जब अवसर निकल जाए तब पछताने से क्या होता है। यह बात सब समयों में, हर युग में उतनी ही सत्य है जितनी आज से कई सौ वर्ष पहले थी।

अध्यक्ष महोदय, समय तो बहती धारा के समान है। पानी निरंतर बहता रहता है। जहाँ उसमें ठहराव आया, वहीं उसका मरण है, उसी प्रकार जिस व्यक्ति के जीवन में समय रुक गया, उसका जीवन मृत तुल्य है। एक प्रसिद्ध कहावत है- जो समय को नष्ट करता है, समय उसे नष्ट कर देता है।

महोदय! समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। हमें अकसर ऐसे कथन सुनने को मिलते हैं-क्या करें, समय ही नहीं मिला करना तो चाहते, पर क्या करें आदि। यदि ऐसे व्यक्तियों की दिनचर्या को देखा जाए तो ये वास्तव में उनकी अकर्मण्यता के सूचक कथन हैं। समय का उपयोग कहाँ, कैसे करना है, यह हमें पता होना चाहिए।

समय हमारे पास ईश्वर द्वारा प्रदत्त वरदान है। यदि हमें इसका उपयोग करना आ गया तो सफलता हमारे कदम चूमेगी, किंतु यदि कार्य करने के स्थान पर बैठे-बैठे सपने देखा करेंगे तो वैसा ही होगा जैसा महादेवी जी की ये पंक्तियाँ बताती हैं :

तू मोती के द्वीप स्वप्न में रहा खोजता ।
तब तो बहता समय शिला-सा जम जाएगा।

समय को व्यर्थ गँवाकर मनुष्य की ऐसी अवनति होती है कि उसका बाहर निकलना असंभव हो जाता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि हर महान व्यक्ति यह जानता था कि उसका लक्ष्य क्या है और उसे पूरा करने के लिए उसे समय का सदुपयोग कैसे करना है।

फ्रैंकलिन का कहना है – अगर तुम्हें अपने जीवन से प्रेम है तो समय को व्यर्थ मत गँवाओ, क्योंकि जीवन इसी से बनता है।

अपने जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए, अपने समाज को ऊँचा उठाने के लिए, अपने देश को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यकता है-कर्म करने की, समय का महत्त्व पहचानने की। गया धन वापस आ सकता है, पर बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता।

इसलिए समय की महत्ता को जानो, उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको नहीं।

धन्यवाद।

(ख) आशुभाषण

भाषण और आशुभाषण में मुख्य अंतर यह है कि भाषण में विषय पहले से ज्ञात होता है और छात्रों के पास यथोचित तैयारी करने का पूरा समय होता है जबकि आशुभाषण का विषय तत्काल दिया जाता है। वक्ता के पास दो से लेकर पाँच मिनट तक का समय होता है। उसे उसी समय में अपने विचारों को सुसंबद्ध करके प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करना होता है। भाषण कला में पारंगत होने पर ही आशुभाषण दिया जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है – आत्मविश्वास, धैर्य, विविध विषयों का ज्ञान, तुरंत सोच सकने की क्षमता आदि। जैसे ही विषय मिले तुरंत उस पर विचार आरंभ कर देना और विषय में मुख्य क्या है, उसे पकड़ने का प्रयास करना चाहिए; जैसे

विषय – समय की हानि जीवन की हानि है।

इस विषय में मुख्य यह है कि हमारा जीवन बहुत थोड़ा है, अत: बहुमूल्य है। समय नष्ट करके अपने जीवन को हानि पहुँचाना अत्यंत शोचनीय है।

(ग) परिचर्चा

किसी एक विषय पर जब कुछ विशेषज्ञ मिलकर विचार-विमर्श करते हैं, तब वह परिचर्चा कहलाती है। एक व्यक्ति संचालन करता है और विषय को आरंभ करता है। बाकी सभी बारी-बारी से अपने विचार व्यक्त करते हैं। संचालक परिचर्चा को बहस में बदलने से बचाता है। आवश्यकता पड़ने पर विषय से भटक रहे वक्ताओं को पुनः विषयानुरूप चर्चा में वापस लाता है। अंत में संचालक सभी सदस्यों की चर्चाओं का संक्षेप में निष्कर्ष भी प्रस्तुत करता है। विद्यालय में परिचर्चा के अनेक विषय हो सकते हैं जैसे अनुशासन, पुस्तकालय परीक्षा-प्रणाली, स्वच्छता आदि।

(घ) वाद-विवाद

वाद-विवाद और भाषण में थोड़ी भिन्नता होती है। इसमें किसी विवादास्पद विषय को लिया जाता है और वक्ता विषय के पक्ष-विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। अतः ऐसा विषय होना चाहिए जो एक कथन के रूप में हो; जैसे-सदन की सम्मति में – ‘आधुनिकता को दौड़ में आज भारतीयता कहीं खो गई है।’

1. वाद-विवाद प्रतियोगिता में एक दल में कम-से-कम दो छात्र होते हैं; जिनमें से एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत करता है।

2. वक्ताओं को केवल अपने ही पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत करना होता है। इसकी तैयारी करने के लिए विषय के प्रत्येक शब्द पर ध्यान देना और विचार करना अपेक्षित होता है। उन्हें ऐसी कोई भी बात नहीं कहनी चाहिए जो विपक्ष को लाभ पहुँचाए, बल्कि उन्हें प्रतिपक्षी के तर्कों को काटते हुए अपने पक्ष के समर्थन में बोलना होता है, जिससे श्रोताओं को पूरी तरह से सहमत कराया जा सके।

3. प्रतियोगियों को सभा को ही संबोधित करना होता है, ठीक वैसे ही जैसे भाषण में। इसमें एक-दूसरे को संबोधित नहीं किया जाता। कभी-कभी बीच में आवश्यकता पड़ने पर इस प्रकार संबोधित करना चाहिए; जैसे- मैं जानना चाहूँगी, अपने विपक्षी वक्ताओं से। मुझसे पूर्व बोलकर जाने वाले वक्ता महोदय, आपके अनुसार तो ……….। आदि।

4. विपक्ष के तर्कों को काटना बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिए तैयारी करते समय ही ऐसे बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए, जिन्हें विपक्षी बोल सकते हैं, उसी समय विपक्षियों के कथनों को सुनकर काटने के लिए काफ़ी अभ्यास की अपेक्षा होती है।

5. प्रायः पक्ष के वक्ता शांत आवाज़ में अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं, जबकि विपक्षी तर्कों को काटने के उद्देश्य से अधिक आक्रामक होते हैं।

6. वाद-विवाद में मर्यादा का पालन करना चाहिए। किसी भी वक्ता की व्यक्तिगत रूप से निंदा नहीं करनी चाहिए। न ही किसी को अपमानित करना चाहिए। तर्कों की लड़ाई केवल विषय तक ही सीमित रहनी चाहिए, व्यक्तिगत कटाक्षों के रूप में नहीं। उदाहरणतः – अभी-अभी मेरे माननीय प्रतिपक्षी वक्ता ने कहा… पर मैं उनसे यह कहना चाहता हूँ कि आज के समय में ऐसा कहना क्या मूर्खतापूर्ण नहीं होगा…। अतः मेरा उनसे अनुरोध है कि वे ज़रा शांत चित्त हो पुनर्विचार करें।

7. यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि वाद-विवाद और बहस में अंतर होता है। बहस में आप बिना कोई तर्क दिए हाँ या न के माध्यम से एक पक्ष से जुड़े रह सकते हैं, जबकि वाद-विवाद में, अपनी बात को तर्कों एवं उदाहरणों के माध्यम से प्रकट करना अति आवश्यक होता है।

8. वाद-विवाद की तैयारी करते समय भाषण संबंधी सभी बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए।

उदाहरण-विषय: सदन की राय में-‘देश में आधुनिकता लाने के लिए हिंदी को जाना होगा’

(i) पक्ष

माननीय अध्यक्ष महोदय, निर्णायक मंडल एवं प्रिय मित्रो! मैं रचित भटनागर विषय के पक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। ‘हिंदी जिसके माथे पर बिंदी’ पर आज ज़माना बिंदी का नहीं है, जमाना है टैटूस का। भारत को आधुनिक बनाना है तो हिंदी को तो जाना ही होगा।

हिंदी जुड़ी है हमारी प्राचीन संस्कृति से। यह बिल्कुल ठीक है कि यदि हमें अपनी पुरानी मान्यताओं, रीति-रिवाजों, पौराणिक कथाओं का ज्ञान प्राप्त करना है तो हिंदी को ही माध्यम बनाना आवश्यक है, पर इन सबके लिए अवकाश ही कहाँ है। अगर आज की दुनिया में हमें अपना अस्तित्व कायम रखना है तो जरूरत है विज्ञान की, कंप्यूटर और मोबाइल को समझने की और इसका एकमात्र सरल माध्यम है – अंग्रेजी।

कब तक अपने ही घेरे में बंद हम कुएँ के मेंढक की तरह बैठे रहेंगे और अपनी संस्कृति के नाम पर संपूर्ण विश्व में आ रही आधुनिकता की क्रांति से कन्नी काटते रहेंगे।

मुझसे पूर्व बोलकर जाने वाले वक्ता का कहना है कि हिंदी भी सक्षम है-आधुनिकता को वहन करने में और उनका तर्क है कि हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करके आधुनिकता को वहन करने की क्षमता विद्यमान है। पर मैं उनसे पूछना चाहूँगा कि ऐसा करके हिंदी अपना हिंदीपन नहीं खो रही। अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करके वह कितने प्रतिशत हिंदी रह पाई है।

अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि यदि हमें संपूर्ण विश्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना है तो हिंदी को छोड़ अंग्रेज़ी को अपनाना होगा। उसी के सुर में अपना सुर मिलाकर हमारा सुर बनेगा जो पूरे विश्व के साथ होगा।

धन्यवाद।

(ii) विपक्ष

मिले सुर मेरा-तुम्हारा

न रहे मेरा न तुम्हारा।

बड़े जोर-शोर से अंग्रेजी की वकालत करने वाले मेरे पूर्व वक्ता यह भूल गए कि हिंदी को छोड़कर हम अपनी जड़ों से उखड़ जाएँगे और जब जड़ ही नहीं रहेगी तो पल्लवन, कुसुमन कहाँ से होगा।

माननीय अध्यक्ष महोदय, निर्णायकगण एवं प्रिय साथियो ! मैं ईशान प्रकाश विषय के विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं अपने विरोधी वक्ताओं के कथनों से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ।

हिंदी हमारी युगों की संस्कृति को वहन करने वाली भाषा है। संस्कृत से लेकर खड़ी बोली तक की जो परंपरा है उसने बड़ी सफलतापूर्वक भारतीय संस्कृति के गौरव को बनाए रखा है और उसे हर आगे आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाया है, माननीय वक्ता उसी से दूर हो जाने की बात कर रहे हैं और आधुनिकता के नाम पर भारतीयता से ही मुँह मोड़ रहे हैं।

अध्यक्ष महोदय, मैं उनसे यह पूछना चाहता हूँ कि जब हम भारतीय ही नहीं रहे तो हमारा अस्तित्व ही कहाँ है? हम किस मुँह से अपने देश को आगे बढ़ाने की बात करेंगे? कोई भी भाषा विकास को तभी प्राप्त करती है, जब वह निरंतर अपने शब्द भंडार को समृद्ध करती है और यह होता है अन्य भाषाओं से शब्दों को लेकर तथा आधुनिक शब्दों के लिए नए पर्याय खोजकर। अध्यक्ष महोदय, हिंदी में यह क्षमता पूरी तरह से विद्यमान है और अनेक नए शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि हिंदी केवल परंपरा को ही वहन नहीं कर रही, अपितु आधुनिकता की दौड़ में भी आगे है।

हिंदी में आजकल कंप्यूटर पर काम हो रहा है। विज्ञान के कार्यों के लिए हिंदी में शब्दावली मौजूद है और जापान जैसे राष्ट्र अपनी भाषा का प्रयोग करके क्या उन्नति नहीं कर रहे? क्या हम उन्हें आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ा हुआ मान सकते हैं? तो क्यों हम हिंदी को लेकर चिंतित हैं? क्यों हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में इस प्रकार आँख बंद करके शामिल होना चाहते हैं कि पता ही न चले कि हम आखिर जाएँ कहाँ?

यदि हम हिंदी के माध्यम से अपनी ज़मीन से जुड़े रहें और अपनी आँखें खुली रखकर हिंदी को आधुनिकता की दृष्टि से गतिशील रखें तो किसकी हिम्मत है कि हमारी हिंदी को हमसे छीन सके। माथे पर बिंदी लगाकर हम उसे ही आधुनिकता की पहचान बना सकते हैं।

धन्यवाद।

टिप्पणी

विषय के पक्ष-विपक्ष में अन्य अनेक तर्क भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं, किंतु यह ध्यान देने योग्य है कि जहाँ अपने तर्कों को प्रस्तुत किया जाए, वहाँ विपक्षियों के तर्कों को भी मज़बूती से काटा जाए।

(iii) प्रश्न पूछना

वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में एक वक्ता के बोलने के पश्चात् पूछे गए प्रश्नों का भी महत्त्व होता है। प्रायः दो प्रश्न पूछे जा सकते हैं। ये प्रश्न श्रोताओं में से कोई भी पूछ सकता है। प्रश्न का उपयुक्त उत्तर देने पर अतिरिक्त अंक मिलते हैं। सर्वोत्तम प्रश्नकर्ता को भी पुरस्कृत किया जाता है।

प्रश्नकर्ता को प्रश्न पूछते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रश्न उपयुक्त एवं स्पष्ट हो। प्रश्न बिल्कुल सीधा, सटीक एवं संक्षिप्त होना चाहिए। प्रश्न के उत्तर के उपरांत पुनः प्रश्न नहीं किया जा सकता।

उदाहरण

1. माननीय महोदय, मैं आरुषि, सातवीं कक्षा की छात्रा पक्ष में बोलकर जाने वाले वक्ता रचित से यह प्रश्न करना चाहती हूँ कि उन्होंने बड़े जोर-शोर से हिंदी को हटा देने की बात कही। अपना भाषण हिंदी में प्रस्तुत करके क्या वे स्वयं को बहुत हीन मान रहे हैं, आधुनिकता की दौड़ में बिल्कुल पीछे।

2. अध्यक्ष महोदय, मैं निखिल, दसवीं ‘ए’ का छात्र हूँ और विपक्षी वक्ताओं से यह पूछना चाहता हूँ कि क्या केवल हिंदी का प्रयोग करके वे अंतरिक्ष में प्रवेश पा सकते हैं। वैसे वह तो बहुत दूर की बात है, क्या इंजीनियरिंग या मेडिकल में प्रवेश पा लेंगे?

(ङ) मूल्यांकन

भाषण एवं वाद-विवाद का मूल्यांकन करते समय मुख्य रूप से तीन बिंदुओं को ध्यान में रखा जाता है-विषय की प्रस्तुति, भाषा-शैली एवं प्रस्तुति अर्थात् वक्ता ने विषय को कितनी भली प्रकार प्रस्तुत किया है। भाषा-विषय एवं श्रोताओं के स्तर के कितने अनुकूल है। किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया है। आत्मविश्वास, हाव-भाव, स्पष्टता आदि के आधार पर भी मूल्याकंन किया जाता है।