अनुच्छेद लेखन : पुस्तक की आत्मकथा
पुस्तक की आत्मकथा
मैं एक पुस्तक हूँ। मुझे पढ़कर मानव ज्ञानार्जन करता है। मैं सब की सच्ची साथी, ज्ञान का अथाह सागर और शिक्षा तथा मनोरंजन का उत्तम साधन हूँ। मेरा उपयोग ज्ञान को संरक्षित करने के लिए किया जाता है। अध्ययन करने वालों की मैं मित्र बन जाती हूँ। मैं अलग-अलग विषयों जैसे- साहित्य, कला, धर्म, चिकित्सा आदि में अनेक रूपों और रंगों में मिलती है। आज में आपको जिस रूप में दिखाई देती हूँ, मेरा प्रारम्भिक रूप इससे बहुत भिन्न था। प्रारम्भ में गुरु अपने शिष्यों को मौखिक ज्ञान देते थे। उस समय तक कागज का आविष्कार नहीं हुआ था अतः ज्ञान को संरक्षित करने के लिए उसे लिपिबद्ध करके सर्वप्रथम भोजपत्रों पर लिखा गया। हमारा अति प्राचीन साहित्य भोज पत्रों और ताड़पत्रों पर ही उपलब्ध है। बाद में मुझे बनाने के लिए घास-फूस, लकड़ी और बाँस को कूट-पीटकर गलाया गया। उसकी लुगदी तैयार कर के मशीनों के नीचे दबाकर कागज का आविष्कार हुआ। उपलब्ध ज्ञान को प्रेस में मुद्रण यन्त्रों की सहायता से कागज पर छापा जाता है। फिर जिल्द बनाने वाले उन कागजों को काटकर, सिलकर, चिपकाकर और आकर्षक जिल्द से सजाकर मेरा अर्थात पुस्तक का रूप संवारते हैं। मेरा मूल्य निर्धारण करके मुझे दुकानों में पहुँचाया जाता है, जहाँ से मैं तुम लोगों तक पहुँचती हूँ। मैं चाहती हूँ कि कोई मुझे फाड़े नहीं बल्कि घर की किसी अलमारी में व्यवस्थित ढंग से और मेरा अधिक से अधिक उपयोग हो जो मेरा आदर-सम्मान करता है उसे मैं विद्वता के उच्च शिखर पर पहुंचा देती हूँ।