अनुच्छेद लेखन : वाह! क्या मेला था वह
वाह! क्या मेला था वह
मेले सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। ये एकरस जीवन में सरसता प्रदान करते हैं और तनावमुक्त करके मन को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। अन्य लोगों से मिलने का और अपनी संस्कृति को पहचानने का ये अच्छा अवसर प्रदान करते हैं। भारत तो है ही मेलों का देश। अनेक छोटे-बड़े मेले यहाँ लगते ही रहते हैं, लेकिन जिस मेले का मैं पूरे वर्ष इंतज़ार करता हूँ, वह है मेरे घर के पास ही लगने वाला दशहरे का मेला। इस बार का मेला भी मेरे लिए हमेशा की तरह आनंददायक था। रामलीला देखने का अवसर तो मिला ही, तरह-तरह के झूले झूलने का मुझे बड़ा मज़ा आया। ये झूले अप्पूघर के झूलों से मिलते-जुलते थे। मेरा छोटा भाई भी बड़े-बड़े झूलों पर मेरे साथ बैठता रहा। इस बार आकर्षण के केंद्र थे-कुछ व्यक्ति जो शिवजी, राम जी आदि का वेश बनाए मूर्तिवत् खड़े थे। हम उन्हें देखकर आश्चर्यचकित थे कि बिना पलक झपकाए वे इतनी देर तक कैसे खड़े रह सकते थे। कुछ लोग उन्हें छूकर भी देख रहे थे कि ये आदमी हैं या मूर्ति। मेले में चाँदनी चौक के हलवाइयों ने अपनी दुकानें सजाई थीं। खाने की जितनी चीजें मैं सोच सकता था, वे सब वहाँ मौजूद थीं। खाते-खाते मेरा पेट भर गया, पर मन नहीं भरा। घूमते हुए कई मित्रों से भी हमारा मेल हुआ। साथ-साथ घूमने का आनंद ही कुछ और था। वाह ! क्या मेला था वह। उसकी याद मैं अपने मन में सँजोए हूँ, अगले मेले की प्रतीक्षा में।