अनुच्छेद लेखन : परतंत्रता एक अभिशाप
परतंत्रता एक अभिशाप
पराधीनता दुखों एवं कष्टों की जननी है। पराधीन व्यक्ति के पास कितनी ही सुख-सुविधाएँ क्यों न हों, उसे सुख की अनुभूति नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे-सोने के पिंजड़े में बंद पक्षी सोने की कटोरी में भोजन पाने पर भी किसी प्रकार के सुख का अनुभव नहीं करता। उसे भूखों मरना पसंद है, पर परतंत्र रहना नहीं। पराधीन व्यक्ति सदैव दूसरों का मुँह ताका करता है, उसके पास स्वयं निर्णय का अधिकार नहीं होता, उसकी सोच उसकी अपनी नहीं होती। परिणामतः उसकी आत्मा का हनन होता जाता है, उसका आत्मसम्मान नष्ट हो जाता है, उसकी बुद्धि कुंठित होती चली जाती है, उसे विवेक का ज्ञान नहीं रहता। जड़वत हो वह दूसरों की आज्ञा पालन करते हुए ही अपना जीवन बिताया करता है। इस प्रकार पराधीन मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास रुक जाता है। भाव एवं विवेक शून्य हो उसे अपमानित जीवन बिताना पड़ता है। पराधीनता की लज्जा का कलंक सदैव उसके माथे पर लगा रहता है और सपने में भी उसे सुख की प्राप्ति नहीं होती। चाहे पिंजरे में बंद चिड़िया हो या खूँटे से बँधी गाय, सभी को स्वतंत्रता प्रिय होती है।