CBSEclass 7 Hindi (हिंदी)EducationHindi GrammarNCERT class 10thPunjab School Education Board(PSEB)अनुच्छेद लेखन (Anuchhed Lekhan)

दया धर्म का मूल है


अनुच्छेद लेखन : दया धर्म का मूल है


दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये जा घट तन में प्राण॥

अर्थात् धर्म हमें दया करना सिखाता है और अभिमान की जड़ में पाप-भाव पलता है। अत: हमें अपने शरीर में प्राण रहने तक दया भाव को त्यागना नहीं चाहिए। संसार का प्रत्येक धर्म दया और करुणा का पाठ पढ़ाता है। हर धर्म सिखाता है कि जीव पर दया भाव रखो और कष्ट में फँसे इंसान की सहायता करो। परोपकार की भावना ही सबसे बड़ी मनुष्यता है। यह एक सात्विक भाव है। परोपकार की भावना रखने वाला न तो अपने-पराए का भेदभाव रखता है और न ही अपनी हानि की परवाह करता है। दयावान किसी को कष्ट में देखकर चुपचाप नहीं बैठ सकता। उसकी आत्मा उसे मज़बूर करती है कि वह दुखी प्राणी के लिए कुछ करे। नानक, गांधीजी, जीसस, विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर और न जाने ऐसे कितने ही संत हुए जिन्होंने अपनी दयाभावना से मानव-जाति के कल्याण की कामना करते हुए कर्म किए। इन्हीं लोगों के बल पर आज हमारा संसार तरक्की की राह पर आगे बढ़ा है। अगर कोई किसी पर अत्याचार करे या बेकसूर को यातना दे, तो हमारा कर्तव्य बनता है कि हम बेकसूर का सहारा बनें। न्याय व धर्म की रक्षा करना सदा से धर्म है। दया भाव विहीन मनुष्य भी पशु समान ही होता है। जो दूसरों की रक्षा करते हैं, वे इस सृष्टि को चलाने में भगवान की सहायता करते हैं। धर्म का मर्म ही दया है। दया भाव से ही धर्म का दीपक सदैव प्रज्वलित रहता है।