लेख : भारत की सामाजिक समस्याएं
भारत की सामाजिक समस्याएं
भारत प्राकृतिक, भौगोलिक दृष्टि से तो अनेकताओं और विविधताओं से भरा हुआ देश
है ही, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी विविधता तथा विभिन्नता भरा देश है।
यहाँ एक नहीं अनेक जातियाँ है। उनके अन्तर्गत काम-धन्धों के हिसाब से अनेक वर्ग और उपवर्ग है। सभी वर्गों-उपवर्गों की अपनी-अपनी बिरादरियां और समाज है। रीति-रिवाज भी उसी तरह एक जैसे न होकर अपने-अपने अलग एवं विभिन्न हैं। जाहिर है कि सभी की समस्याएँ भी अपनी-अपनी एवं भिन्न है। लेकिन इन विविधताओं के रहते हुए भी भारतीय समाज में अनेक रीति-रिवाज और परम्पराएँ ऐसी है, जिन का औपचारिक स्वरूप कुछ भिन्न चाहे हो, पर मूल अवधारणाएँ समग्रतः एक जैसी हैं। उन्हीं की दृष्टि से यहाँ सामाजिक स्तर पर भी विविधता में एकता के सर्वत्र दर्शन होते एवं किए जा सकते हैं।
विवाह एक सार्वजनिक संस्था है, पर विवाह – संस्कार करने के ढंग सभी प्रान्तों एवं समाजों
के अलग-अलग है। लेकिन विवाह जैसे पवित्र कर्म के साथ जुड़ी दान – दक्षिणा की रीति सभी
जगह समान रूप से जुड़ी हुई है। आज भारतीय समाज में दान – दक्षिणा यानि दहेज का प्रश्न और समस्या बड़ी ही विकट हो उठी है। समर्थ लोगों ने ऐसे अवसरों पर विराट आयोजन एवं प्रदर्शन कर समस्या का स्वरूप और भी भयावह एवं घिनौना बना दिया है। देखा – देखी जिसमें सामर्थ्य नहीं, उसे भी इस कुरीति का निर्वाह करने को बाध्य होना पड़ता है। जब जी भर कर दहेज देने वालों की कन्याओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है, तब न कर पाने वालों की कन्याओं को यदि दारुण यातानाएँ भोगने और जल मरने को बाध्य होना पड़ता है, तो क्या आश्चर्य?
जातिवाद के भेद-भाव, छुआ-छूत और ऊँच – नीच का अन्तर भारतीय समाज की एक अन्य विषम समस्या है। सत्य तो यह है कि एक ही जाति, वर्ग और बिरादरी का व्यक्ति जब किसी तरह कुछ उन्नति कर लेता है, तो अपने ही वर्ग से भेद-भाव और हीनता भरा व्यवहार करने लगता है। मुस्लिम समाज, ईसाई वर्ग बाहरी दृष्टि से चाहे कितने ही एक क्यों न प्रतीत होते हों, उनमें भी इस प्रकार की ऊँच – नीच की समस्याएँ बड़ी ही विषमता के साथ विद्यमान है। यहाँ के प्रमुख हिन्दू समाज में तो यह समस्या चिरन्तन काल ही है। इस से अलगाव वाद को विशेष बढ़ावा मिला और आज भी मिल रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज स्वतः ही इस समस्या से मुक्त होता जा रहा था; पर कुछ निहित स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को नीचा दिखाने और अपनी विशेष महत्ता सिद्ध करने के लिए बोतल में बन्द इस जिन्न को पुनः बाहर निकाल दिया है। फलतः भारतीय समाज को आज इस समस्या से एक बार फिर बुरी तरह जूझना पड़ रहा है।
भारतीय समाज और घर-परिवार में नारी वर्ग का क्या वास्तविक स्थान और महत्त्व है, यद्यपि संविधान में इस को पूरी तरह स्पष्ट निर्देशित कर दिया गया है; पर अभी तक क्योंकि पुरुष-समाज मध्यकालीन मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया इस कारण यह एक सामाजिक समस्या ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। पिता और पति, परिवारों की चल-अचल सम्पत्ति पर नारी-अधिकारों का भी संविधान में स्पष्ट निर्देश है; पर उस पर भी अमल होता हुआ दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार स्त्री-पुरुष की समानता, नारी-स्वतंत्रता की बातों को भी उछाला तो बहुत जाता है, बढ़-चढ़ कर नारी-स्वतंत्रता और समानता की दुहाई भी दी जाती है, पर व्यवहार के स्तर पर वही ढाक के तीन पात। यहाँ तक कि समान कार्य के लिए नारी पुरुष के पारिश्रमिक में भी भेद बरता जाता है।
साक्षरता, शिक्षा विशेष कर देहाती और कसबाई मानसिकता वाले समाज में भी अभी तक समस्या बना हुआ है। ऐसे स्थानों पर आज भी ऐसे परिवारों की कमी नहीं कि जो लड़कियों को तो क्या, लड़कों तक को साक्षर और शिक्षित बनाना आवश्यक नहीं समझते। फिर लड़के-लड़की के पालन-पोषण, देख-रेख तक में भेद-भाव किया जाता है। आजकल गर्भस्थ शिशु का लिंग जान पाने की सुविधा मिल जाने के कारण लड़कियों की भ्रूण हत्या तक कर दी जाती है। पश्चिम की देखा-देखी भारत में भी यह प्रथा निरन्तर बढ़ती जा रही है, इसी प्रकार कई समाजों में आज भी बाल-विवाह या अनमेल विवाह की समस्या विद्यमान है। अंध – विश्वासों के कारण सती प्रथा के दाहक समाचार भी कई बार पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं। बाल मजदूरी की भी भारतीय समाज में एक बहुत बड़ी समस्या विद्यमान है। जिन हाथों में खिलौने या पढ़ने – लिखने की पुस्तकें-कापियों होनी चाहिए उन्हें कठोर श्रम के लिए बाध्य कर दिया जाता है। हर साल बाल-दिवस, बाल मजदूरी और बन्धुआ मुक्ति दिवस तो मनाए जाते हैं, पर इन समस्याओं का अन्त फिर भी दिखाई नहीं देता।
भारत के कुछ वर्गों और विशेष कर मुस्लिम समाज में पर्दा-प्रथा भी एक बहुत बड़ी
समस्या है, जो पुरुष जाति की सामाजिक संकीर्णता की ही परिचायक है। बहु पत्नी प्रथा,
आजकल पर पुरुष या नारी से सम्बन्ध रखने का बढ़ता प्रचलन, और भी कई प्रकार की कुप्रथाएँ, अन्धविश्वास आदि भारतीय जीवन और समाज को बीसवीं शताब्दी के अन्त में भी आन्तरिक – बाह्य दोनों स्तरों पर कमजोर बना रहे हैं। निरन्तर बढ़ती जनसंख्या और जन्म-निरोध के साधन अपनाने के प्रति कुछ समाजों की उदासीनता भी एक बड़ी समस्या और भविष्य के लिए खतरा है। जीवन – समाज के नेतृवर्ग को इन और इन जैसी समस्याओं के विरूद्ध जोरदार आवाज उठा, इन से छुटकारा दिलाने का प्रयास करना चाहिए, अन्यथा स्थिति भयानक होगी?