लेख : नौकरशाही और भारत

नौकरशाही और भारत

नौकरशाही, लाल फीताशाही भिन्न लगते हुए भी वास्तव में एक ही तरह की प्रक्रिया और मानसिकता को प्रकट करने वाले शब्द हैं। नौकरशाही से तात्पर्य उन सरकारी अफसरों, छोटे-बड़े कर्मचारियों से है कि जो किसी भी तंत्र में सरकारी काम-काज किया और चलाया करते हैं। लाल फीताशाही इन नौकरशाहों द्वारा अपनाई जाने वाली कार्य-प्रणाली को कहा जाता है। नौकरशाहों पर सामान्यतया किसी का कोई अंकुश नहीं हुआ करता। उन की कार्य-प्रणाली पर ही सारी शासन-व्यवस्था का स्याह-सफेद अवलम्बित रहा करता है। मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति या राष्ट्रपति, प्रधान आदि सभी नौकरशाहों का मुख ही जोहा करते हैं। उन्हें तो नौकरशाहों द्वारा प्रस्तुत कागजों पर मात्र हस्ताक्षर कर देने का ही अधिकार और अवसर हुआ करता है।

राजतंत्र हो, एकतंत्र हो कि समाजवाद या फिर लोकतंत्र ही क्यों हो, वास्तविक सत्ता नौकरशाही के हाथ में ही रहा करती है। विशेष कर लोकतंत्र में तो यही मुख्य है या हो जाया करते हैं- यद्यपि लोकतंत्र की मूल अवधारणा की दृष्टि से उन का कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं हुआ करता और न होना ही चाहिए। लेकिन आज का कड़वा-मीठा सत्य यही है कि इन नौकरशाहों के हत्थे चढ़ कर ही लोकतंत्र एक तमाशा, एक जन-शोषक तंत्र, एक बहुत बड़ी कुरूपता एव भदेस होकर रह गया है। और कहीं ऐसा हुआ या नहीं; पर भारत के सन्दर्भ में तो निःसंकोच कहा जा सकता है कि यहाँ लोकतंत्र का जो मरसिहा पढ़ा जा रहा है, उसका एकमात्र कारण निरंकुश हो चुकी नौकरशाही का मनमाना और भ्रष्टाचरण वाला व्यवहार ही है।

लोकतंत्र में किसी मंत्रालय से सम्बद्ध मंत्री, उपमंत्री, राज्यमंत्री और सचिव आदि तो प्रायः आते जाते रहते हैं। अधिक-से-अधिक पाँच वर्षों तक ही रह पाया करते हैं। फिर यह जरूरी नहीं कि आने वाला मंत्री-उपमंत्री पढ़ा – लिखा ही हो। कार्य-विधि से परिचित एवं अनुभवी तो वे कतई हुआ ही नहीं करते। फिर वे लोग प्रायः दफ्तरी भाषा और कार्य-प्रणाली से भी परिचित नहीं रहते। कई बार मात्र अंगूठा छाप या अधिक-से-अधिक थोड़ी बहुत स्थानीय भाषा पढ़े – लिखे लोग भी मंत्री जैसे पदों पर आ जाया करते हैं। इनके विपरीत नौकरशाह अच्छे खासे पढ़े – लिखे हुआ करते हैं। विदेशी भाषा में पढ़े – लिखे होने के कारण उनकी मानसिकता भी प्रायः सम्पूर्णता उस विदेशी वर्ग के गुलामों जैसी हुआ करती है कि जो निकट अतीत में भारत पर शासन कर चुका है। जहाँ तक दफ्तरी कार्य-विधियों का प्रश्न है, चपरासी से लेकर उच्चाधिकारी तक सभी उससे भली – भाँति परिचित रहते ही हैं, उसमें पारंगत भी हुआ करते है। अतः आम जनता तो क्या, मंत्री तक को उन से दब कर रहना या फिर उनकी इच्छानुसार चलने को बाध्य होना पड़ता है। इस तरह की बाध्यता प्रस्तुत कर देना ही वास्तव में नौकरशाही कही जाती या कही जा सकती है।

आज भारत में जन या लोक द्वारा चुने गए जन या लोक – प्रतिनिधियों का लोक – हित में चल रहा राज नहीं है, वास्तविक राज नौकरशाही या नौकरशाहों का ही चल रहा है। इस कारण कई प्रकार की दिक्कतों का आम जन को तो सामना करना ही पड़ रहा है, कार्य – प्रणाली लम्बी होने या जान – बूझ कर लम्बी कर दिए जाने के कारण समय, धन और शक्ति का अपव्यय भी हो रहा है। यह स्थिति कई तरह के भ्रष्टाचार – रिश्वत, सिफारिश आदि को भी जन्म दे रही है। आज आम जन का सामान्य सा कार्य भी इस नौकरशाही के कारण बिना रिश्वत समय पर नहीं हो पाता। कोटा – परमिट राज, इंस्पेक्टर राज आदि इसी नौकरशाही के ही भिन्न नाम – रूप वाले छोटे – बड़े संस्करण हैं। इन्हें खुश रख कर कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह की मनमानी कर सकता है। काला बाज़ार, स्मग्लिंग, कर – चोरी, राजस्व – चोरी और हेरा – फेरी, चुनावों के समय वोट डालने तथा गिनने के समय होने वाली धांधली आदि सभी इसी अफसरशाही व्यवस्था की देन है। इसने लोकतंत्र का मूल्य एवं महत्त्व वास्तव में समाप्त करके रख दिया है।

भारत में नौकरशाही के कारण ही महंगाई का चक्रवृद्धि दर से विकास हो रहा है। आठ – आठ योजनाएं बीत जाने के बावजूद भी लोक यानि आम आदमी की दशा बद से बदतर होती जा रही है। चपरासी, सिपाही जैसे सामान्य पदों की रिक्तियां भरने के लिए हज़ारों की रिश्वत ली – दी जाती है। जिन महकमों का आम जनता से सरोकार रहता है, वे दोनों हाथों से जन – शोषण कर रहे हैं। भारत में अफसरशाही की कृपा से रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाने वाला व्यक्ति रिश्वत देकर छूट जाता है। काम न करने वाला मौज करता है, जबकि काम करने वाला बुद्धू मान लिया जाता है। इस प्रकार भारत में रीढ़ – रहित नेताओं – मंत्रियों की दुर्बलता का लाभ उठा कर नौकरशाही कुछ इस तरह प्रभावी हो चुकी है कि आम जन निरन्तर घुट रहे दम को साधने के प्रयास किए ज्यों – त्यों जिए जा रहा है – बस!