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लेख – दलितोत्थान के नाम पर

दलितोत्थान के नाम पर

भारत एक प्राचीन एवं समृद्ध परम्पराओं वाला देश है। आरम्भ से ही यहाँ की रीति-नीति किसी व्यक्ति या वर्ग-विशेष के प्रति हीनता या विद्वेष का भाव न रखते हुए सभी की कल्याण-कामना से भरी रही है। इस का प्रमाण यह व्यवहार भी है कि वैदिक काल में व्यक्ति अपने कर्म से पहचाना जाता था, जन्म या वर्ण-जाति आदि से नहीं। योग्यता को ही मान दिया जाता था। तभी तो योग्य व्यक्ति पहले यदि हीन कर्म किया करता था, तब भी अच्छा कर्म कर के उच्च वर्ग में होने का सम्मान प्राप्त कर लेता था। इसी प्रकार कर्म भ्रष्ट उच्च वर्ग के व्यक्ति को हीनता प्राप्त हो जाती थी। इसका प्रमाण यह भी है कि वैदिक ऋचाओं के द्रष्टा अनेक हीन वर्ग के व्यक्तियों को भी वही मान-सम्मान दिया गया था आज भी दिया जाता है कि जो ऐसा कार्य करने वाले अन्य वर्गों को।

समय निरन्तर गतिशील है। वह बदलता रहता है। परिस्थितियों और वातावरण बदल कर बाकी सब-कुछ भी बदल दिया करते हैं। सो विदेशी आक्रमणों और संस्कृतियों के प्रभाव से या अन्य कारणों से देश का वातावरण निरन्तर घुटनशील होता गया। पुराने मान और मूल्य बदलते गए। एक प्रकार की जातीय एवं वर्गीय कट्टरता भी आती गई। कर्म का स्थान जन्म ने ले लिया अर्थात् सामाजिक स्तर का निर्धारण अब कर्म नहीं जन्म के आधार पर होने लगा। फलस्वरूप मनुष्य होते हुए भी कुछ वर्ग निरन्तर पिछड़ते गए। उन्हें अछूत, अस्पृश्य, दलित, पीड़ित, हरिजन जैसे नामों से पुकारा जाने लगा। इस बात में भी सन्देह नहीं कि इनके प्रति सामान्य व्यवहार भी अच्छा न रह बुरा होता गया। दूसरी ओर ऐसी प्रतिभाएँ भी निरन्तर स्वरूपाकार धारण कर सामने आती रही कि जो सामाजिक क्रान्ति लाकर इन वर्गों को इनके मानवोचित अधिकार दिलाने के प्रयास करती रही। बुद्ध – जैन मत, मध्यकालीन सन्त और भक्ति-आन्दोलन इन प्रयासों के जीवन्त उदाहरण हैं।

आधुनिक काल में आकर भी यह प्रयास बन्द नहीं हो गया। ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज और गान्धी जी का हरिजनोद्धार-आन्दोलन इस दिशा में सार्थक कार्य और कदम कहे जा सकते हैं। निःसन्देह इन के प्रयत्नों का जीवन – समाज की मानसिकता पर गहरा एवं व्यापक प्रभाव पड़ा-उग्र यद्यपि कतई नहीं जैसा कि दलितोत्थान के नाम पर आज उग्र और आतंकवादी जैसे प्रयास तथाकथित जन-नेताओं द्वारा चलाए जा रहे हैं। मण्डल आयोग की ये सन्तानें दलितोत्थान की आड़ लेकर क्योंकि सत्ता कुर्सी हथियाना चाहती है, इस कारण इन्होंने ऊँच-नीच, छुआ-छूत और जातिवाद के बोतल में बन्द किए जा चुके जिन्न को ढक्कन खोलकर पुनः बाहर निकाल सामने ले आई है। फलस्वरूप आज दलित राजनीति की आड़ में आरक्षण के नाम जो अमानवीय कुचक्र चलाया और निरंकुशता का नंगा नाच हो रहा है; उत्तर प्रदेश में घृणितम स्वरूप देखने को मिला है। खाते-पीते घरों के ये बड़े और कारों-वायुयानों में चलने वाले नेता आज अपने पिता को पिता कहने की बजाए गालियों की भाषा में उसका नाम लेने लगे हैं। एक नई तरह की जाति-प्रथा और साम्प्रदायिकता को उगाह कर देश-जाति के टुकड़े-टुकड़े कर डालना चाहते हैं।

यह एक तथ्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पैतालीस-पचास वर्षों में धीरे-धीरे लोग जाति-पाति जैसी बातें लगभग भूल चुके थे। आम जीवन-व्यवहारों में उस तरह के विभेद शायद ही कहीं देखने को मिल पाते थे। लोगों का खान-पान, रहन-सहन सभी कुछ साँझा होता जा रहा था। जातिवाद की पहचान तक मिटती जा रही थी; पर पहल मण्डलवादियों सत्ता के भूखों ने उसे झरझारे कर जगाया और अब ये दलितोत्थानवादी उसे बुरी तरह भड़का देना चाहते हैं – इस सीमा तक कि चाहे राष्ट्र और राष्ट्रीयता का सारा ढाँचा ही जलकर राख क्यों न हो जाए, उन्हें तनिक भी परवाह या शर्मो-हया नहीं। आज इस प्रकार के नेता चारों ओर नंगे होकर घूम-फिर मानवता और मानवीयता को भी नंगी कर के रख देना चाहते हैं।

दलितों का उद्धार निश्चय ही होना चाहिए। उसमें किसी को भला क्या ऐतराज या विरोध हो सकता है। विरोध या ऐतराज वहशियों, अनपढ़-असभ्यों वाली भाषा-व्यवहार अपना कर बार-बार इस बात की घोषणा करते रहने पर है कि “हम नहीं सुधरेंगे। मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक स्तर पर दलित है, दलित ही बने रहेंगे।” आज के युग में आदमी की जाति-पाति को न तो कोई जानता है, न पहचान ही मानता है। आज का आदमी अपने सभ्य व्यवहार और शालीन भाषा से पहचाना-माना जाता है। लेकिन साथ यह कहना पड़ता है कि दलितोत्थान के नाम पर राजनीति करने वाले, वास्तव में सत्ता के भूखे चन्द लोग मानवता के इन सामान्य मानदण्डों को भुलाए हुए हैं। यह भी नहीं जानना चाहते कि प्रतिक्रियावाद से प्रतिक्रियावाद ही जन्म लेता है, जो कभी किसी का भला नहीं कर सकता।