बृहदारण्यक उपनिषद ऋषि याज्ञवलक्य की अप्रतिम रचना है। वे राजा जनक के दरबार में राजा से विचार विमर्श किया करते थे और उनकी पत्नी मैत्रेयी भी वहाँ उनका साथ दिया करती थीं। उनकी दो पत्नियां थीं, एक कात्यायनी एवं दूसरी मैत्रेयी।
कात्यायनी गृहकार्य में कुशल थीं और मैत्रेयी को ज्ञान की चर्चा में, सवः को प्राप्त करने की, प्रभु चरणों में स्थान ग्रहण करने की खोज में दिलचस्पी थीं। इसलिए वे बाद में ब्रह्मवादिनी भी कहलाई।
संवाद :
(बृहदारण्यक उपनिषद २.४)
याज्ञवल्क्य ने कहा, “प्रिय मैत्रेयी, मैंने जो कहा है उस पर चिन्तन करो। तुम्हारा भ्रम दूर हो जायेगा। जब तक पृथक्कता है तब तक व्यक्ति देखता है, सुनता है, सुगन्ध की अनुभूति करता है, किसी से बात करता है, किसी वस्तु के बारे में सोचता है, किसी वस्तु को जानता है।
परन्तु जब आत्मा की सिद्धि जीवन की अविभाज्य एकता के रूप में हो जाती है तब कौन किसके द्वारा देखा जा सकता है, किसकी सुगन्ध किसके द्वारा अनुभव की जा सकती है, किसके द्वारा किसका चिन्तन किया जा सकता है, किसके द्वारा कौन जाना जा सकता है? हे मैत्रेयी, मेरी प्रिये, ज्ञाता को कैसे कभी भी जाना जा सकता है?”
यह सुनकर मैत्रेयी मौन हो गई और उसे दी गई शिक्षाओं पर चिन्तन करती हुई अनन्त और अमर्त्य में विलीन हो गई।
उन ऋषि याज्ञवलक्य को हमारा शत – शत नमन 🙏🙏 है, जिन्होंने बृहदारण्यकोपनिषद की रचना की एवं हमारे आकांक्षी एवं उलझे हुए मन के लिए ज्ञान का सागर लिखा है ताकि हमें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल सकें।