भारत की तटस्थ विदेश – नीति

लेख – भारत की तटस्थ विदेश – नीति

अपने आस-पड़ोस तथा दूर – दराज स्थित अन्य देशों के प्रति अपने देश का क्या और कैसा व्यवहार रहना चाहिए, यह निश्चित करने के लिए जो सामान्य नियम और मानदंड बनाए, अपनाए और निर्धारित किए जाते हैं, राजनीतिक पारिभाषिक शब्दावली में उन्हें विदेश – नीति कहा जाता है। हर स्वतंत्र राष्ट्र की अपनी एक स्वतंत्र विदेश नीति हुआ करती है। वह अपने राष्ट्रीय हितों और अन्य देशों के कूटनीतिक संकेतों एवं व्यवहारों को आधार बनाकर ही निर्धारित की जाती है। भारत जब स्वतंत्र हुआ था, तब विश्व – क्षितिज पर दो सत्ता गुट सक्रिय थे – एक एंग्लो अमेरिकन गुट, दूसरा सोवियत गुट, दोनों विशाल जन – शक्ति वाले देश भारत को अपने गुट का सदस्य बनाना चाहते थे। परंतु यह देखते हुए कि एक गुट का सदस्य बन जाने पर भारत दूसरे गुट की सहायता – सहयोग से वंचित हो जाएगा; भारत ने निर्गुट या तटस्थ रहने की विदेश – नीति अपनाना ही उचित माना।

तटस्थता का अर्थ निर्गुट या गुट – निरपेक्षता। जिसकी व्याख्या इस तरह से की गई कि भारत किसी एक गुट का सदस्य न बन, उसकी किसी संधि में ना बंध दोनों गुटों या पक्षों अर्थात सभी तरह के देशों के साथ अपने समानांतर संबंध बनाए रखेगा। जब जहां भी शांति की रक्षा, शांति कार्यों के विस्तार आदि की आवश्यकता होगी, भारत सभी के साथ समुचित सहयोग करेगा। आरंभ में भारत की इस नीति को कई तरह के संदेह के घेरे में रखा गया, इस का मजाक उड़ाया गया;, पर जल्दी ही कोरिया, स्वेज़ नहर के राष्ट्रीयकरण आदि के रूप में विश्व शांति को भंग कर देने वाली कुछ समस्याएं विश्व के सामने उभर कर आईं। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सक्रिय सदस्य के रूप में इनके समाधान में भारत ने जिस प्रकार से तत्परता दिखाई, सहयोग कर इन का उचित समाधान खोजा, उससे प्रभावित होकर सारे विश्व में यह स्वीकार कर लिया कि आज के अंतरराष्ट्रीय युग में भी तटस्थ विदेश – नीति अपनाकर चला और जिया जा सकता है।

अपनी तटस्थ विदेश – नीति के अंतर्गत भारत ने अपने उदय काल से ही छोटे – बड़े हर राष्ट्र के साथ अच्छे और व्यावहारिक संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह निकला कि उसे दोनों शक्ति गुटों से हर प्रकार की आवश्यक सहायता अपने निर्माण – कार्यों के लिए उपलब्ध होती रही। तटस्थता का अर्थ अपने – आप में मगन रहकर बाकी विश्व से कट या अलग हो जाना नहीं था, बल्कि सभी को उचित परिप्रेक्ष्यों में उचित सहयोग प्रदान करना था। भारत ऐसा करता रहा। परिणामस्वरूप अन्य अनेक देश भी अपने – आप को इस राह का राही बनाते गए। कम से कम हमारे बाद जिस राष्ट्र ने भी स्वतंत्रता प्राप्त की, विदेश – नीति के संदर्भ में अपने – आप को तटस्थ ही घोषित किया। फलस्वरूप तटस्थता ने धीरे-धीरे एक व्यापक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इससे यह भी सिद्ध हो गया कि तटस्थता का अर्थ निष्क्रियता नहीं, बल्कि हर प्रकार से सजग सक्रियता ही है। तटस्थता का अर्थ अकर्मण्यता भी नहीं है। वह अपने मूल स्वरूप एवं प्रेरणा में ही शांत स्वभाव वाली कर्मण्यता है।

भारत के अतिरिक्त मिस्र, यूगोस्लाविया और इंडोनेशिया ने भी जल्दी ही तटस्थ विदेश – नीति को अपना लिया। इन चारों राष्ट्रों के शिखर नेताओं और सम्मेलन ने अरब, एशिया के अन्य अनेक देशों को भी प्रभावित किया। फलतः इसे एक व्यापक आंदोलन का स्वरूप तो मिला ही, इस के सदस्य राष्ट्रों की संख्या संख्या निरंतर बढ़ती गई। एक बार तो यह सदस्य – संख्या संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों से भी ऊपर पहुंच गई थी। कई बार जब विश्व के आकाश पर युद्ध के बादल मंडराते दीख पड़े, लगा कि शांति भंग होने वाली है, भारत आदि गुट – निरपेक्ष देश झट से सामने आए। फलस्वरुप उनके प्रभाव से अशांति फैलाने वाले युद्ध के बादल छँट गए। इससे इस आंदोलन का मान – सम्मान तो बढ़ा ही, कई बार नर – संहार भी होते – होते बचा। भारत तथा अन्य तटस्थ राष्ट्रों पर किसी तरह का दबाव भी नहीं पड़ा।

सन 1989 में बेलग्रेड में होने वाले तटस्थ राष्ट्रों के सम्मेलन के बाद और मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल नासार, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो आदि के स्वर्गवास के बाद से यह आंदोलन शिथिल पड़ने लगा। फिर सोवियत संघ के विघटन ने रही – सही कसर भी पूरी कर दी। आज विश्व रंगमंच पर तटस्थ आंदोलन चाहे समाप्त हो गया है; पर भारत में अपनी भारत ने अपनी इस तरह की विदेश – नीति का परित्याग नहीं किया। वह अब भी दृढ़ता के साथ इसी नीति का दामन थामे हुए है। यही कारण है कि पड़ोसी पाकिस्तान को छोड़कर भारत के शेष सभी राष्ट्रों के साथ संबंध पूर्ण रूप से व्यावहारिक बने हुए हैं। इसी कारण पहले जैसा न रहते हुए भी भारत आज भी विश्व –  राजनीति को प्रभावित कर रहा है। उसकी संपूर्ण विश्वसनीयता भी बनी हुई है और बनी रहेगी।