भारत और पंचायती राज

भारत में पंचायती राज – व्यवस्था कोई नई वस्तु न होकर एक अत्यंत प्राचीन, बुनियादी और आदि व्यवस्था है। यहां पर लिच्छवी – गणराज्य, मालव – गणराज्य जैसी, जो प्राचीन परंपराएं एवं व्यवस्थाएं पढ़ने – सुनने को मिलती हैं, वस्तुतः वे पंचायत – आधारित व्यवस्थाएं ही थीं। भारत के सम्राट कहे जाने वाले व्यक्ति अपनी न्याय – व्यवस्था को इन पंचायतों के माध्यम से ही जन-जन तक पहुंचाया करते थे। कहीं – कहीं तो पंचायती राज की अपनी स्वतंत्र सत्ता भी थी, यह तथ्य भी प्राचीन इतिहास में पढ़ने को मिल जाता है। उसकी अपनी कराधान व्यवस्था और नीति तो थी ही, न्याय व्यवस्था भी सर्वथा मुक्त एवं स्वच्छंद थी। उस का निर्णय ही नियम और कानून था। सभी उसे मुक्त रूप से स्वीकार किया करते थे वे सभी की आस्थाओं का केंद्र हुआ करती थीं।

कुछ काल बाद शासन – सूत्रों को दूर – दराज के देहातों तक पहुंचाने, न्याय – व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य की सब निचली व्यवस्था या विकेंद्रीकृत निचली व्यवस्था को पंचायत कहा जाने लगा। दूरदराज के देहातों में निवास करने वाले लोगों को अपनी छोटी-छोटी आपसी समस्याएं सुलझाने के लिए अपने काम – काज छोड़, कोसों पैदल चलकर राजधानी न आना पड़े, वहीं घर – गांव के आस-पास ही सुलझाव एवं न्याय मिल जाए, मूलतः एवं मुख्यतः इन्हीं बातों और सुविधाओं के लिए पंचायतों और पंचायती – राज – व्यवस्था का गठन किया गया था। आज कितना बाहर से भेजे हुए लोग नहीं, बल्कि स्थानीय एवं सभी के परिचित लोग ही इनके कर्ता – धर्ता हुआ करते थे। पंच + आयत इस संधि – विग्रह से ही स्पष्ट है कि इसके स्वरूप का गठन मुख्यतः पांच व्यक्तियों पर आधारित हुआ करता था। वही अपना एक मुखिया चुन लिया करते थे। वह मुखिया पंचायत का सरपंच और शेष पंच कहलाते थे। गांव – देहात की कोई भी व्यक्तिगत या सामूहिक समस्या उपस्थित होने पर समस्या से संबंधित दोनों पक्षों के ही नहीं, सारी गांव – बिरादरी के सामने पंचायत का आयोजन किया जाता था। कई बार सरपंच उस व्यक्ति को चुना जाता, जिस की निष्पक्षता के बारे में दोनों पक्षों की आस्था और सहमति हो। फिर दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद पंचों की सहमति से सरपंच जो निर्णय किया करते ‘पंच परमेश्वर का वास’ मान कर अपनी संपूर्ण आस्था के साथ सभी उसे स्वीकार किया करते। सरपंच लोग भी न्याय की गद्दी पर बैठ अपने – पराये के सभी रिश्ते – नाते, स्वार्थ आदि भूल कर न्याय एवं निर्णय किया करते थे, स्वर्गीय प्रेमचंद द्वारा रची गई ‘पंच परमेश्वर’ नामक कहानी से भी यह तथ्य स्पष्ट उजागर हो जाता है।

लगता है एक गांव की पंचायत के ऊपर कई गांवों की ‘खण्ड पंचायत’ रहा करती थी। यदि स्थानीय पंचायत निर्णय न कर पाती या उसका कोई निर्णय किसी पक्ष को मान्य ना होता तब मामला  ‘खण्ड पंचायत’ के सामने लाया जाता। इसके ऊपर भी एक पूरे जिले की ‘सर्वग्राम पंचायत’ हुआ करती।  खण्ड पंचायत के निर्णय से भी असन्तुष्ट व्यक्ति उस तक पहुंच कर सकता। इसी प्रकार यह विकेंद्रित व्यवस्था क्रमशः विस्तृत होते हुए प्रदेश या प्रांत और फिर राजा और केंद्रीय सत्ता तक फैली हुई थी। आज की तरह से तब लोगों की छोटी बातों और झगड़ों के लिए कोर्ट – कचहरियों में पहुंच, वकीलों का शिकार बन वर्षों तक भटकते रह कंगाल नहीं बनना पड़ता था।

स्वतंत्रता – प्राप्ति के बाद अंग्रेजों द्वारा समाप्त कर दी गई इस पंचायती राज व्यवस्था को एक बार फिर जीवित किया गया था। लेकिन जाने किन कारणों से यह बीच में ही ठप होकर रह गई। विगत कुछ वर्षों से एक बार ग्राम पंचायतें, पंचायती राज और व्यवस्था का विघटन कर उसे निचले स्तर तक इनके माध्यम से पहुंचाने की न केवल चर्चा ही चली है, बल्कि दो-तीन बार पंचायतों के चुनाव भी हो चुके हैं। लेकिन आज व्यवस्था से जुड़ी अन्य सभी संस्थाओं, राजनीतिक दलों की जो अंतः बाह्य दुर्दशा एवं धींगामस्ती है, वही पंचायतों में भी पाई जाती है। यहां भी निहित स्वार्थी सत्ता के दलाल, कुर्सी के भूखे, बड़े राजनीतिज्ञों के अराजक – उद्दंड चमचे ही सक्रिय हैं। इस कारण पंचायती चुनावों के समय ही मार – धाड़, हत्या, लूट तथा वे सारे हथकंडे सामने आने लगते हैं जो कि सत्ता से संबंध रखने वाले अन्य बड़े संकायों के चुनावों के अवसर पर हुआ करते हैं। समर्थ, प्रबल गुण्डा तत्व ही आम ग्रामीणों को डरा – धमका कर पंच, सरपंच आदि सभी कुछ चुने जाते हैं। इन चुने गयों में भी जिनका बाहुबल अधिक होता है, वे चरागाहों, ग्राम पंचायतों की भूमि तक को स्वयं चट कर देखते – ही – देखते समृद्ध हो जाते हैं, बाकी सभी तरह का मनमाना व्यवहार भी कर के अपना रौब – रुतबा बनाए रखते हैं। न्याय के नाम पर मगरमच्छी और भेड़िया न्याय होता है आज की पंचायतों में।

एक अच्छी, साफ-सुथरी, सर्व – सुलभ व्यवस्था गुंडागर्दी का शिकार होकर एक तरह की कुरूपता एवं अव्यवस्था की जननी बनकर रह गई है। आज की परिस्थितियों में सुधार की आशा तो की नहीं जा सकती। इसलिए अच्छा है कि इसे समाप्त कर दिया जाए। तब इस से जुड़े दरिंदों से निश्चय ही ग्राम जन अपनी रक्षा स्वयं कर लेंगे।