प्रांतीय (क्षेत्रीयता) का उभार
लेख : प्रांतीय (क्षेत्रीयता) का उभार : राजनीतिक दल
देश को स्वतंत्र कराने का जो आंदोलन चला, उसके प्रभाव ने हर कोने में पहुंच कर, यहां तक कि नितांत पिछड़े इलाकों के पिछड़े लोगों के पास पहुंच कर उन्हें अपने अस्तित्व का बोध कराया। मानव होने के नाते अपने अधिकारों और उन्हें प्राप्त करने की अनुभूति जगाई। एक प्रकार से इसे एक अच्छी बात ही कहा जाएगा। लेकिन यह एक प्रकार की बुराई तब बन गई कि जब एक विशाल देश का भूभाग रहते हुए भी क्षेत्रीयता या प्रान्तीयता के अलग-थलग भाव को ही प्ररूप रूप दिया गया या दिया जाने लगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धीरे-धीरे संघर्ष काल के राजनेता तो एक-एक करके चलते गए, पर रात – ही – रात में टोपी बदलकर नेता बने व्यक्तित्व एवं नेतृत्व – शक्ति विहीन नेताओं की बाढ़ सी आती गई। ऐसा प्रत्येक नेता यदि सीधे सत्ता की कुर्सी तक नहीं तो कम – से – कम सत्ता के गलियारों तक तो अवश्य पहुंचना चाहता था। जब सीधे ढंग से उन्हें ऐसा होता नहीं दिखाई दिया तो उन्होंने अराजक तत्वों से सांठ – गांठ कर सत्ता की कुर्सियां हथियानी चाही। वैसा भी न होने पर वे अपने – आप को अपने इलाकों यानि क्षेत्रों या प्रांतों में कुछ इस प्रकार सक्रिय और सिरमौर दिखाने का प्रयास करने लगे कि जैसे उन्हें प्रक्षप दिए और अपनाए बिना गुजारा नहीं। इस तरह के गिरगिटी नेताओं ने ही सांप्रदायिकता की तरह प्रांतीयता या क्षेत्रीयता की भावना को भी एक तंत्र इकाई के रूप में उभारना आरंभ किया – इस बात की चिंता – भावना किए बिना कि ऐसा करने से देश के कई टुकड़े हो सकते हैं।
प्रांतीयता को उभारने के लिए केवल क्षेत्रीय भौतिक तत्वों का ही सहारा नहीं लिया गया, भाषाओं को भी आधार बनाया गया। भाषाई दुराव इस सीमा तक पैदा किया और उछाला गया कि एक बार भाषा – वार प्रांतों का पुनर्गठन हो जाने के बाद भी यह दुराव आज तक समाप्त नहीं हो पाया। अक्सर उभर – उभर कर भर रहे जख्मों को कुरेदा जाया करता है। इसके लिए स्वतंत्रता के तत्काल बाद से सत्तासीन दल और उसी की सरकार की नीतियां भी जिम्मेदार रही। वह भी कभी धन – कभी उस क्षेत्रीय और विदेशी भाषा की पीठ ठोक कर क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता और प्रांतीयता को महज इसलिए उभारती रहती है कि उनकी कुर्सी सलामत बनी रहे। इससे समग्र राष्ट्रीयता, उसकी भावात्मक एकता को कितनी हानि पहुंच रही है, इसकी शायद वह कल्पना ही नहीं कर रही।
अपने अंचल या प्रांत विशेष से, वहां की छोटी – बड़ी प्रत्येक वस्तु से, भाषा – संस्कृति और सभ्यता से अनुराग रखना किसी भी तरह महत्त्वहीन या बुरा नहीं कहा जा सकता – लेकिन तभी तक कि जब तक एक समग्र राष्ट्रीयता के अंग रूप में उस अनुराग की अभिव्यक्ति हो। लेकिन आज हो यह रहा है कि तथाकथित नेता और असंतुष्ट नेता अपने दलों से टूट – बिखर कर अपने अहं की पूर्ति करने के लिए प्रांतीयता की आग भड़का अपने छोटे-छोटे राजनीतिक दल गठित करते जा रहे हैं। भावावेश एवं प्रांतीयता – प्रांतीय भाषा – प्रेम के आधार पर कई बार ऐसे छोटे स्थानीय दल कुछ देर के लिए महत्व भी पा लेते हैं, अपनी सरकारें तक गठित करने में भी सफल हो जाया करते हैं; पर निहित स्वार्थी होने के कारण होने चला नहीं पाते। फलतः अपने – आप में ही दब – घुट कर बस, मात्र प्रांतीयता और अलगाव की आग को ही हवा दिया करते हैं। इससे अक्सर कई तरह के उग्र असंतोष नाहक भड़क कर जान – माल के साथ-साथ राष्ट्रीयता की भावनात्मक सत्ता को भी ठेस पहुंचाते रहे हैं।
आज एक दल से टूट – टूट कर बने दलों की बाढ़ सी आ रही है, हर प्रांत में मात्र प्रांतीयता की ग़िज़ा पर पलने वाले छोटे-छोटे कितने दल जनता की छाती पर मूंग दल रहे हैं, इसका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इसी कारण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आधी शताब्दी बीत जाने पर भी भारत में राष्ट्रीयता की वह भावना नहीं बन पाई कि जो देश की माटी और जन – जन की काया पलट कर के रख दिया करती है। प्रांतीयता की भावना से उत्पीड़ित होकर ही कई बार हमारे राष्ट्रीय स्तर के दलपति भी कभी नहर, कभी पानी, कभी सड़क और कभी इसी तरह के अन्य सामान्य प्रश्नों को लेकर सिर फुटोवल करते रहते हैं। जब सारा भारत एक है, तो इस तरह के प्रश्न क्यों और किस लिए उठाए जाने चाहिए।
प्रांतीयता से भी कई कदम नीचे उतर कर आज देश के अनेक भागों में मात्र आंचलिकता को महत्व देने की मांग उठाई जा रही हैं। उन्हें मनवाने के लिए हड़तालें, बन्द और अन्य कई प्रकार की उग्रवादी कार्यवाहियाँ की जा रही हैं। एक ही प्रांत – प्रदेश के निवासी परस्पर घृणा का बारूद इकट्ठा करते रहते हैं। प्रांतीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं कि उन ढेरों को पलीता लगा कर अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति को अच्छा नहीं कहा जा सकता। अपनी सोच को व्यापक राष्ट्रीयता का अंग बना कर ही प्रांतीयता के संकीर्ण विचार से बचा जा सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं।