पाठ का सार : दुःख का अधिकार
दुःख का अधिकार : यशपाल
‘दुःख का अधिकार’ एक व्यंग्यपूर्ण रचना है। इसमें इस बात पर दुःख प्रकट किया गया है कि लोग गरीबों के दुःख को दुःख नहीं समझते। हमारे देश में कुछ अभागे लोग ऐसे भी हैं कि जिन्हें दुःख मनाने का भी अधिकार नहीं है।
पोशाक द्वारा स्तर निर्धारण : हमारे समाज में हमारी पोशाक देखकर हमारा स्तर निर्धारित किया जाता है। मनुष्य की पहचान उसकी पोशाक से होती है। यही पोशाक उसे अधिकार व दर्जा दिलाती है। कीमती पोशाक अनेक बंद दरवाजे खोल देती है। जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण भी आते हैं जब हम अपने वर्ग-भेद से झुककर गरीबों की मनोस्थिति को भी आँकते हैं? उन निचली श्रेणियों की अनुभूति मन को छूती है, परंतु पोशाक बंधन बनकर अड़चन डाल देती है। खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुकने से रोके रहती है।
लोगों का दुर्व्यवहार : खरबूजे बेचनेवाली घुटनों में मुँह छिपाकर डलिया में कुछ खरबूजे रखकर रो रही थी। उसकी पोशाक को देखकर कोई भी खरबूजे खरीदने के लिए आगे नहीं बढ़ रहा था। बाजार में खड़े लोग उसे धिक्कार रहे थे तथा तरह-तरह की बातें बना रहे थे। वे कह रहे थे कि सूतक लगे हुए हैं। एक आदमी ने घृणा से थूकते हुए कहा, “क्या जमाना है। जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगा के बैठी है।” एक ने लापरवाही से कहा कि इन कमीनों का धर्म-ईमान कुछ नहीं, बस रोटी का टुकड़ा ही सब कुछ है। परचून की दुकान चलानेवाले एक दुकानदार ने कहा- “इसे अपने धर्म-ईमान की चिंता नहीं है तो न सही परंतु इसे सूतक के तेरह दिनों में खरबूजे बेचकर दूसरों का धर्म-ईमान नहीं बिगाड़ना चाहिए।”
बुढ़िया माँ की समस्या-लेखक ने पास-पड़ोस की दुकानों से पूछकर पता लगाया कि उसका तेईस साल का जवान लड़का भगवाना साँप के काटने से मर गया। वह शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन में खेती करके, परिवार का निर्वाह करता था। परसों सवेरे एक साँप ने उसे डस लिया। माँ ने ओझा को बुलाया। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा की। दान-दक्षिणा दी। घर में जो अनाज और आटा था, वह दान-दक्षिणा में चला गया परंतु उसका पुत्र भगवाना बच न सका। सुबह होते ही बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दिए। बहू बुखार से तप रही थी। कोई उधार देनेवाला नहीं था इसलिए वह रोते-रोते खरबूजे लेकर बेचने चल पड़ी थी। वहीं हमारे पड़ोस की एक संभ्रात महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उठ न सकी थी। उन्हें पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद पुत्र-वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा न आने की अवस्था में आँखों से आँसू न रुकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे। हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र वियोगी माँ के लिए द्रवित हो उठे थे।
लेखक दोनों पुत्र वियोगिनी माताओं की तुलना कर रहा था। उसके मन में विचार आया कि शोक करने और दुःख मनाने के लिए भी सुविधा और अधिकार दोनों चाहिए।