निबंध लेखन : स्वदेश प्रेम
स्वदेश प्रेम
प्रस्तावना – प्रेम मानवता का प्रतीक है। मानव हृदय की उज्ज्वलता प्रेम से प्रतीत होती है। प्रेम का क्षेत्र यदि एक ओर विस्तृत होता है, तो दूसरी ओर उसके स्वरूप में उज्ज्वलता भी है। जो लोग केवल अपने से प्रेम करते हैं, उनका प्रेम भी संकीर्ण होता है, जो अपने कुटुंबियों से प्रेम करते हैं; और जिनका प्रेम कुटुंबियों तक ही सीमित होता है, उनका प्रेम भी संकीर्ण होता है, उन व्यक्तियों से, जो अपने प्रेम को समाज ऊपर उठाकर स्वदेश में केंद्रित करते हैं। संपूर्ण विश्व से एक समान प्रेम करने वाले और भी अधिक पूज्य समझे जाते हैं, पर ऐसे लोग कभी-कभी ही इस धरा-धाम पर अवतीर्ण होते हैं।
स्वदेश का महत्त्व – मानव-जीवन में स्वदेश का महत्त्व अनुपम होता है। जिस देश की धरा में हम जन्म लेते हैं, जिसकी रज में लोट-लोटकर हम बड़े होते हैं, जिसकी पवित्र वायु में हम साँस लेते हैं, जिसके सुशीतल जल को पीकर हम अपनी तृष्णा बुझाते हैं और जो माता के समान ही हमारा लालन-पालन करता है, उस स्वदेश के महत्त्व का चित्र क्या शब्दों से चित्रित किया जा सकता है? यदि कोटि-कोटि मनुष्य, कोटि-कोटि जिह्वाएँ धारण करके स्वदेश के गौरव का गान गाएँ और कोटि-कोटि तूलिकाओं द्वारा चित्र अंकित करें, तो भी कोटि-कोटि युगों में वह समाप्त नहीं होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि मानव समुदाय के वश की बात नहीं कि वह स्वदेश के महत्त्व तथा गौरव के गीत गा सके। इसीलिए कहा गया है, ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’। सचमुच स्वदेश स्वर्ग से भी अधिक अलौकिक है – जन्मभूमि का गौरव उससे भी अधिक महान है। स्वदेश के चरणों पर एक नहीं, कोटि-कोटि स्वर्ग निछावर किए जा सकते हैं।
स्वदेश-प्रेम की स्वाभाविकता – भला ऐसा कौन है, जिसके हृदय में स्वदेश के प्रति प्रेम न होगा? स्वदेश की वायु, जल, मिट्टी, तेज़ और अन्न से संगठित होने वाले शरीर के भीतर स्वदेश का प्रेम देवता बनकर निवास करता है। शरीर की रग-रग में स्वदेश का महान उपकार समाविष्ट रहता है। यही कारण है कि शरीर की रग-रग में स्वदेश का प्रेम हिलोरें मारता रहता है। स्वदेश को देखते ही आँखें आनंद से थिरक उठती हैं। स्वदेश को हरा-भरा और आनंद की मस्ती में झूमता हुआ देखकर मन आनंद से विभोर हो जाता है। स्वदेश के मंगलमय समाचारों से कानों को कितनी संतृप्ति होती है ! प्राणों के भीतर हृदय के भीतर हर्ष का समुद्र कितनी छलांगें मारता है। मनुष्यों में ही नहीं, पशु-पक्षियों और यहाँ तक कि पेड़-पौधों में भी स्वदेश का प्रेम निरंतर तरंगित हुआ करता है हिममय प्रदेश में रहने वाले पशु-पक्षी हिम के झोंकों को ही आनंद और सुख की तरंग मानते हैं, उनके होंठों पर उनकी आँखों में उसी समय तक मुसकुराहट रहती है, जब तक वे हिम की गोद में रहते हैं। इसी प्रकार मरुस्थलों की धूल फाँकने वाले पशु-पक्षी कभी भी यह कामना नहीं करते कि उन्हें कोई वहाँ से ऐसे प्रदेश में ले जाए, जहाँ मरुस्थलों की प्रचंड गरमी न हो पेड़-पौधे भी उसी धरा में पनपते हैं, उसी में आनंद से झूमते हैं, जो उनकी अपनी धरा होती है। कश्मीर के फलों के पौधों को यदि बंगाल की धरती में लगाना चाहें, तो वे उग करके भी अपने देश की स्मृति में मुरझा जाएँगे इसी प्रकार भारत की धरा में निरंतर हरे-भरे रहने वाले आम्र-वृक्ष प्रयत्न करने पर भी रूस की धरती में सूख जाएँगे। सारांश यह है कि मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सबको अपना देश प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। एक कवि ने इसी भाव को सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है :
‘जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥’
स्वदेश के प्रति कर्तव्यनिष्ठा – सचमुच स्वदेश का स्थान माता से भी अधिक उच्च और पिता से भी अधिक आदरणीय होता है। अत: स्वदेश के चरणों पर प्रत्येक मनुष्य को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। यह स्पष्ट है, जो मनुष्य स्वदेश से प्रेम करता है, वह माता से प्रेम करता है, पिता से प्रेम करता है, भाई से प्रेम करता है और देश के जन-जन से प्रेम करता है। स्वदेश के प्रेम में माता-पिता, भाई-बहन और जन-जन का प्रेम समाविष्ट रहता है, अतः स्वदेश की प्रेम-साधना के लिए यदि माता-पिता और भाई-बहन के वैयक्तिक प्रेम को छोड़ना पड़े, तो बिना किसी संकोच के छोड़ देना चाहिए। सबके प्रेम, सबकी सेवा और सबकी आराधना को छोड़कर देश की आराधना करनी चाहिए। देश की आराधना अपनी संस्कृति और अपने धर्म की आराधना है।
देश की आराधना में यदि शूलों की शय्या पर भी सोना पड़े, तो हँसते हुए सोना चाहिए। यदि देश की आराधना में फाँसी के तख्ते पर भी चढ़ना पड़े, तो मुस्कुराते हुए चढ़ जाना चाहिए जो देश की आराधना के मार्ग पर चलता है, वह सहज ही में उस मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, जिसके लिए योगीजन वर्षों तक वनों में तपस्या करते हैं।
उपसंहार – स्वदेश ही हमारा पिता है और स्वदेश ही हमारी माता है। अत: हमें महाराणा प्रताप की ही भांति, वीर शिवाजी की ही भांति स्वदेश के चरणों पर अपनी श्रद्धांजलि चढ़ानी चाहिए। महात्मा गाँधी का आदर्श अपने सामने रखकर हमें स्वदेश सेवा को ही अपना कर्तव्य बनाना चाहिए। यदि हम सब मिलकर स्वदेश की सेवा में जुट जाएँ और हम सबके हृदय में स्वदेश-प्रेम जाग्रत हो जाए, तो हमारा देश पुनः वही स्वरूप धारण कर सकता है, जिसके पुनीत दर्शन के लिए देवगण भी उत्कंठित रहा करते थे।