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दान

श्रीमद्भगवद्गीता दान के सही व गलत तरीकों व्याख्या करती है।

दान तभी श्रेष्ठ है जब वह -:स्वार्थ हो, सही समय और स्थान पर योग्य व्यक्ति को, बिना प्रतिफल की अपेक्षा के दिया जाए।

इसलिए निःस्वार्थ दान के माध्यम से – चाहे वह धन, समय, ज्ञान हो, या प्रेम – हम अपने सद्गुणों में वृद्धि करते हैं और आत्मा के स्वाभाविक दिव्य रूप से जुड़ते हैं।

जीवन की यात्रा इसी के बारे में है – त्याग व सेवा भाव से अपने अंतःकरण का शुद्धिकरण करना, गुणों में निरंतर वृद्धि करना और इनके माध्यम से दिव्य आनंद की खोज करना।

स्वामी मुकुंदानद जी