जीवन की यात्रा में कीर्तन का महत्व
श्री श्री आनंदमूर्ति( आनन्द मार्ग के प्रवर्तक) जी के अनुसार
सभी वृत्तियों को समाहित कर देना या एकत्रित करके एक ही दिशा में चलाकर ले जाना ध्यान है। लेकिन यह तो मन का निरोध करना हुआ। एक नदी के मुहाने पर बांध बनाकर पानी न छोड़ा जाए तो पानी के दबाव से बांध टूट जाएगा।
वास्तव में ध्यान है मन को एक की ओर ले चलना। इसी तरह ईश्वर की भावना मात्र ही ध्यान है।भावना में गतिशीलता रहनी चाहिए, वर्ना जड़ता आएगी।
एक है अपने भीतर जाकर तल्लीन होना और दूसरी है सभी इंद्रियों को एक ही काम में लगाए रखना।
कीर्तन के पीछे यही विज्ञान है। जीभ बोलती है। कंठ स्वर यंत्र हिलाता है। कान सुनते हैं। हाथ-पैर नाचते हैं। कीर्तन में इन सभी को व्यस्त करके रख दिया गया है। मनुष्य की आंखें, कान, मुख सभी इंद्रियों को काम में लगाए रखा जाता है।
पैर ललित शैली में नृत्यरत होते हैं, कान सुनते हैं। सभी को नियोजित रखने वाले कीर्तन की इसीलिए इतनी महिमा है। कान अन्य बातें न सुन पाएं, इसीलिए वाद्य बजाकर कीर्तन किया जाता है।
मृदंग या वैसा ही कोई वाद्य बजाया जाता है, क्योंकि मृदंग की आवाज़ बड़ी मधुर होती है। एक कर्कश आवाज़ और एक मधुर आवाज होने पर मन मधुर आवाज़ को सुनना चाहेगा। मृदंग की आवाज़ में चाहे और कुछ हो या न हो, मिठास अत्यधिक होती है।
इसलिए मनुष्य का मन यदि कीर्तन से थोड़ी देर के लिए इधर-उधर हट भी जाए तो मृदंग की मधुर आवाज सुनकर फिर सही जगह पर लौट आएगा। वह उस मधुर आवाज में लीन हो जाता है।
कीर्तन ध्यान का एक विज्ञान है। यह मन पर संयम का बांध नहीं बांधता, बल्कि उन सभी इंद्रियों को व्यस्त कर देता है, जिनके माध्यम से मन काम करता है। इस तरह मन और इंद्रियों में गतिशीलता रहती है, वे जड़त्व में नहीं जाते।