काव्यांश – औरों की सुनता मैं मौन रहूँ
औरों की सुनता मैं मौन रहूँ
मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास,
यह लो करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।
तब भी कहते हो – कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की,
अरे खिलखिलाकर हँसते होने वाली उन बाधाओं की।
मिला कहाँ वो सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया?
आलिंगन में आते-आते मुसकाकर जो भाग गया।
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या ये अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे – मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय बही नहीं – थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
काव्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :-
प्रश्न 1. ‘मधुप’ को प्रतीक बनाकर कवि क्या कहना चाह रहा है?
प्रश्न 2. कवि अपनी असमर्थता को क्या कहकर अभिव्यक्त कर रहा है?
प्रश्न 3. कवि को किस बात का अफसोस हो रहा है?