कविता वाचन (मौखिक अभिव्यक्ति)
कविता वाचन
कविता वाचन एक कला है, जो जन्मजात होती है, किंतु निरंतर अभ्यास से इसे सीखा भी जा सकता है। कविता पाठ करते समय कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए :
1. कविता गद्य से भिन्न होती है। उसमें अंतर्निहित लक्ष्य उसकी विशेषता होती है। इसे पकड़ने का प्रयास अपेक्षित है।
2. कविता में भावाभिव्यक्ति होती है, अतः इसका वाचन भी भावानुकूल ही हो। भक्ति रस की कविता और वीर रस की कविता के वाचन में अंतर होना ही चाहिए।
3. प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए अभ्यास से भी पूर्व कविता को समझने और अनुभव करने की आवश्यकता है।
4. अभ्यास करते हुए कविता को मन में बिठाना होगा, उसके उपरांत बोलकर अभ्यास करना चाहिए।
5. कविता सुनाते समय आवाज़ इतनी ऊँची अवश्य होनी चाहिए कि श्रोतागण उसे आराम से सुन सकें। यदि आपकी धीमी आवाज़ के कारण श्रोताओं को सारा ध्यान सुनने में ही केंद्रित करना पड़े तो भावानुभूति में बाधा होगी। उसी प्रकार बहुत तेज़ आवाज भी बाधा पहुँचाती है।
6. कविता की प्रस्तुति करते समय उसमें भावों के अनुरूप स्वर का उतार-चढ़ाव होना चाहिए।
7. पंक्तियों के अंत में या बीच में कहाँ, कितने विराम की अपेक्षा है यह ध्यान में रखना चाहिए।
8. भावानुकूल हाव-भाव चेहरे पर भी आने चाहिए। इससे भावाभिव्यक्ति एवं भावानुभूति दोनों में सहायता मिलती है।
9. पंक्तियों को आवश्यकतानुसार दोहराया भी जा सकता है।
10. कविता पाठ और गायन में अंतर है। वाचन करते समय गायन की अपेक्षा नहीं की जाती। यह विशेष अवसरों पर हो सकता है।
उदाहरण
विभिन्न भावों की कुछ कविताओं के नमूने :
1. पद
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
तात मात, भ्रात-बंधु, आपनो न कोई।
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करि है कोई।
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोई।
अँसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई, आणंद फल होई।
भगति देखि राजि भई, जगत देखि रोई।
दासी मीराँ लाल गिरधर, तारो सब मोही
मीराबाई
2. प्रयाण गीत
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती –
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती –
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह – सी
सपूत मातृभूमि के-रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में-सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो-बढ़े चलो, बढ़े चलो।
जयशंकर प्रसाद
3. यह धरती कितना देती है!
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल-फल कर, मैं मोटा सेठ बनूँगा !
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला!
सपने जाने कहाँ मिटे सब धूल हो गए!
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर!
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोए थे,
ममता को सौंपा, तृष्णा को सींचा था!
सुमित्रानंदन पंत
4. छुट्टी का घंटा बजते ही…..
छुट्टी का घंटा बजते ही स्कूलों से
निकल-निकल आते हैं जीते-जागते बच्चे,
हँसते-गाते चल देते हैं, पथ पर ऐसे
जैसे भास्वर भाव वही हों कविताओं के
बंद किताबों से बाहर छंदों से निकले
देश-काल में व्याप रही है जिनकी गरिमा।
मैं निहारता हूँ उनको, फिर-फिर अपने को,
और भूल जाता हूँ अपनी क्षीण आयु को!
केदारनाथ अग्रवाल
5. मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है।
‘पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं, क्षणिक उत्तेजना है।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।
दोस्तो ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।
दुष्यंत कुमार