कविता : मां
माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो
माँ
“तेरे हाथों की करामात की तो बात ही क्या
“माँ”
मुझको तो तेरे कदमों की माटी भी शफा देती है।”
तुम्हीं मिटाओ मेरी उलझन
कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो
कोई नहीं सृष्टि में तुम-सा,
माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।
ब्रह्मा तो केवल रचता है
तुम तो पालन करती हो
शिव हरते तो सब हर लेते
तुम चुन-चुन पीड़ा हरती हो
किसे सामने खड़ा करूँ मैं
और कहूँ फिर तुम ऐसी हो
माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।
कितनी गहरी है अद्भुत सी
तेरी यह करूणा की गागर
जाने क्यों छोटा लगता है
तेरे आगे करूणा सागर।
जाकी रही भावना जैसी
मूरत देखी प्रभु की तिन तैसी।
माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।
तुम से तन मन जीवन पाया
तुमने ही चलना सिखलाया
पर देखो मेरी कृतघ्नता
काम तुम्हारे कभी न आया
क्यों करती हो क्षमा हमेशा
तुम भी तो जाने कैसी हो।
माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।