अनुच्छेद लेखन : साहित्य और समाज
साहित्य और समाज
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है ॥
मानव स्वभावतः क्रियाशील प्राणी है। चुपचाप बैठना उसके लिए संभव नहीं है। इसी प्रवृत्ति के कारण समाज में समय-समय पर क्रोध, घृणा, भय, आश्चर्य, शांति, उत्साह, करुणा, दया, आशा तथा हर्षोल्लास का प्रादुर्भाव होता है। साहित्यकार इन्हीं भावनाओं को मूर्त रूप देकर साहित्य का निर्माण करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के उसका जीवन नहीं और बिना उसके समाज की सत्ता नहीं। समाज का केंद्र मानव है और साहित्य का केंद्र भी मानव ही है। मानव समाज के बिना साहित्य का कोई स्थान नहीं। यह कहना गलत न होगा कि साहित्य और समाज का प्राण और शरीर की भाँति अटूट संबंध है। साहित्य का जन्म समाज के बिना असंभव है और अच्छे समाज का जन्म बिना साहित्य के असंभव है। समाज को साहित्य से नवजीवन प्राप्त होता है और साहित्य समाज के द्वारा ही गौरवान्वित होता है। प्रत्येक साहित्य अपने युग से प्रवाहित होता है। साहित्य किसी भी समाज, देश और राष्ट्र की नींव है। यदि नींव सुदृढ़ होगी तो भवन भी सुदृढ़ होगा। साहित्य अजर अमर है। वह कभी नष्ट नहीं होता।