अनुच्छेद लेखन : सत्संगति
समाज में रहते हुए मुनष्य एक-दूसरे के संपर्क में आए बिना नहीं रह सकता। सभी व्यक्तियों का आचरण, व्यवहार एवं चरित्र समान नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग प्रकार के व्यक्तियों के संपर्क में आना पड़ता है, जिनका प्रभाव उस पर अवश्य पड़ता है। ‘सत्संगति’ दो शब्दों से मिलकर बना है- सत् + संगति। ‘सत्’ का अर्थ है- अच्छा और ‘संगति’ का अर्थ है – साथ। इस प्रकार अच्छे लोगों का साथ ही सत्संगति है। कोई भी व्यक्ति जन्म से न तो दुष्ट होता है और न ही बुरा। वह जन्म से, स्वभाव से एकदम निर्मल व स्वच्छ होता है। वह जिस तरह के वातावरण में, समाज में रहता है, जैसे लोगों के साथ उठता-बैठता है, वैसा ही वह बन जाता है। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, गंदे नाले का पानी गंगा में मिलने पर गंगा जल कहलाने लगता है, ठीक उसी प्रकार अच्छे लोगों का साथ व्यक्ति को अच्छाई की ओर प्रवृत्त कर देता है, दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति भी सत्संगति के प्रभाव से सुधर जाते हैं और अपनी दुष्टता भूल जाते हैं। महर्षि वाल्मीकि पहले लोगों को लूटकर अपने परिवार का पालन करते थे। बाद में नारद जी की संगति से सचेत हो गए और उन्होंने बुराई का मार्ग छोड़ दिया। जिस प्रकार सत्संगति हमें अच्छाई का मार्ग दिखाती है, वैसे ही कुसंगति में रहने से व्यक्ति की बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा उसमें बुराइयाँ आ जाती हैं। स्वाति नक्षत्र की पहली बूँद यदि केले पर पड़े तो कपूर बन जाती है, सीप में पड़े तो मोती बन जाती है, पर जब वही बूँद साँप के मुँह में गिरती है तो विष बन जाती है। इसलिए व्यक्ति के लिए आत्मा की उन्नति हेतु सत्संगति से बढ़कर दूसरा कोई और उपाय नहीं है। अतः व्यक्ति को सदैव श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में रहना चाहिए।