अनुच्छेद लेखन : मित्रता
मित्र होने के भाव को ‘मित्रता’ कहते हैं। मित्रता मित्र का धर्म है। मित्रता के अभाव में जीवन सूना और दुखमय हो जाता है। एक सच्चा मित्र औषधि के समान है। सच्चे मित्र के बारे में कहा गया है-
‘जे न मित्र दुख होहि दुखारी,
तिनहि विलोकत पातक ‘भारी।’
छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। इसमें मधुरता एवं अनुरक्ति का भाव प्रबल होता है। मित्र पर विश्वास भी देखने योग्य होता है। जीवन में तीन मित्र ही सच्चे होते हैं – वृद्धावस्था में पत्नी, पुराना कुत्ता और हाथ का धन। हमारे और मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। उन्हें आपस में कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए। मित्र ही अपने साथी को सत्यपथ पर अग्रसर करता है। मित्रता का मूल है-मनुष्य जो स्वयं करे उसे भूल जाए और दूसरों से ले उसे सर्वदा याद रहे। मानव जीवन में मित्रता के कई लाभ हैं। मित्र के सम्मुख ही व्यक्ति अपना हृदय खोल सकता है। सच्चा मित्र दुख का साथी होता है। वह विपत्ति काल में हमें धैर्य बंधाता है। उसके सहयोग से निराश मन में भी आशा की ज्योति चमक उठती है। किसी को मित्र बनाने से पूर्व उसके आचरण पर ध्यान देना आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति को मित्र बनाना चाहिए जिसका चरित्र सुदृढ़ एवं आचरण शुद्ध हो। भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा के साथ मित्रता का आदर्श स्थापित किया था। सच्चा मित्र शिक्षक की भाँति होता है। वह अपने मित्र को सन्मार्ग की ओर ले जाता है। ऐसे समय में मित्र का मार्गदर्शन ही कल्याणकारी सिद्ध होता है। मित्र परस्पर एक-दूसरे को विवेक एवं शक्ति प्रदान करते हैं। मित्र की पहचान विपत्ति काल में ही होती है-
“धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपत्ति काल परखिएचारी।”