अनुच्छेद लेखन : मन के हारे हार है मन के जीते जीत
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
मनुष्य का जीवन चक्र अनेक प्रकार की विविधताओं से भरा होता है जिसमें सुख-दुःख, आशा-निराशा तथा जय-पराजय के अनेक रंग समाहित होते हैं। वास्तविक रूप में मनुष्य की हार और जीत उसके मनोयोग पर आधारित होती है। मन के योग से उसकी विजय अवश्यंभावी है परन्तु मन के हारने पर अर्थात् निराश होने पर निश्चय ही उसे पराजय का मुँह देखना पड़ता है। मनुष्य की समस्त जीवन प्रक्रिया का संचालन उसके मस्तिष्क द्वारा होता है। मन का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। मन में हम जिस प्रकार के विचार धारण करते हैं हमारा शरीर उन्हीं विचारों के अनुरूप ढल जाता है। हमारा मन-मस्तिष्क यदि निराशा व अवसादों से घिरा हुआ है तब हमारा शरीर भी उसी के अनुरूप शिथिल पड़ जाता है। हमारी समस्त चैतन्यता विलीन हो जाती है। निराशा हमारे लिए एक अभिशाप बन जाती है।
परन्तु दूसरी ओर यदि हम आशावादी हैं और हमारे मन में कुछ पाने व जानने की तीव्र इच्छा हो तथा हम सदैव भविष्य की ओर देखते हैं तो हम इन सकारात्मक विचारों के अनुरूप प्रगति की ओर बढ़ते जाते हैं। अतः हमारा दृष्टिकोण निराशावादी नहीं रहना चाहिए।
कर्मवीर व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी जीत के लिए निरंतर संघर्ष करते रहते हैं और अंत में विजयश्री भी उन्हें अवश्य मिलती है। इसलिए हमें भी केवल भाग्य पर नहीं अपितु कर्म में भी आस्था रखनी चाहिए, जिससे हम अपने मनोबल तथा दृढ़ इच्छा-शक्ति से असंभव को भी संभव कर सकें।