अनुच्छेद लेखन : भाग्य और पुरुषार्थ


पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो, सफलता वर-तुल्य वरो, उठो अपुरुषार्थ भयंकर पाप है न उसमें यश है, न प्रताप है।”

भाग्य और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भाग्य में लिखा है तो मनुष्य पुरुषार्थी होता है अन्यथा आलसी। और मनुष्य पुरुषार्थी है तो वह अवश्य भाग्यशाली होता है। जब हम इस संसार में आए हैं तो हमें कर्म करना ही पड़ेगा। संसार की बाधाओं एवं मुसीबतों से संघर्ष करके अपना रास्ता खोजना ही होगा। तभी विजयश्री हमारे हिस्से में आएगी। वही व्यक्ति समुद्र की गहराइयों में से रत्न पा सकता है जो समुद्र की गहराइयों में उतरकर साहस एवं आत्मबल का परिचय देता है। समुद्र के किनारे हाथ पर हाथ धरकर बैठा व्यक्ति केवल लहरों की ही प्रतीक्षा करता रह जाता है कि कब कोई लहर आएगी और उसकी तकदीर में फेर-बदल करेगी।

उद्यमेन हि सिधयान्ति कार्याणि न मनोरथै

नहि सुप्तस्य सिंहस्य मुख प्रविशन्ति मृगाः।

सभी कार्य परिश्रम से ही सफल होते हैं। भाग्य के भरोसे बैठकर हम केवल अपना समय ही व्यर्थ करते हैं। कर्मभीरु वक्त के थपेड़े खाता हुआ निराशा के गर्त में गिर जाता है। आलस्य उसका सहचर, हार उसकी सहचरी बनती है। वह समाज एवं देश के नाम पर कलंक होता है।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम

दास मलूका कह गए सबके दाता राम।

राम भी उन्हीं की सहायता करते हैं जो स्वयं अपनी सहायता करता है। गीता में श्रीराम ही श्रीकृष्ण के अवतार में अर्जुन को कर्म का संदेश देते हुए कहते हैं-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”

अर्थात् कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत करो। ईश्वर अपने आप हमें यथोचित फल देंगे। हमारी हिंदू धर्म की सभ्यता एवं संस्कृति में भी चार पुरुषाथों ‘धर्म, अर्थ, कर्म तथा मोक्ष’ की स्थापना की गई है। कर्मों द्वारा ही समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाया जा सकता है। सत्कर्मों द्वारा मनुष्य सद्‌गति का और दुष्कर्मों द्वारा मनुष्य दुर्गति का पात्र बनता है। भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि पूर्वजन्म में किए गए कर्म ही भाग्य कहलाते हैं। अतः भाग्य और पुरुषार्थ में गहरा संबंध है। अपने अगले जन्म को स्वर्णिम बनाने के लिए हमें कर्म करना अत्यावश्यक है और वो भी सत्कर्म। कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है। पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी किसी को कुछ नहीं दे सकता। इसीलिए तुलसीदास जी ने भी कहा है-

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,

जो जस करहि सो तस फल चाखा।