अनुच्छेद लेखन : भाग्य और पुरुषार्थ


भाग्य और पुरुषार्थ


ईश्वर ने मनुष्य को सब कुछ प्रदान किया है, किंतु उसे आवरण में छिपा कर रख दिया। वह सब उसे कैसे प्राप्त हुआ-पुरुषार्थ के बल पर। अन्यथा सीप में मोती छिपे रह जाते, धरती के भीतर रत्न दबे रह जाते। न फसल उगती, न धरती सोना उगलती। भाग्यवादी तो केवल बैठा-बैठा मुँह ताका करता है। आलसी और निष्क्रिय होकर दैव-दैव पुकारता रहता है, जबकि पुरुषार्थी अपने कार्य के बल पर बड़े-बड़े संकटों पर विजय प्राप्त कर लेता है। अगर भाग्य कुछ होता भी है-मान लीजिए कि जो हमारे लिए तय कर दिया गया वह हमें प्राप्त होगा ही, तो उसके लिए भी तो हमें कार्य करना ही पड़ता है । शक्तिशाली एवं समर्थ सिंह को भी अपना शिकार पाने के लिए कर्म करना ही पड़ता है, शिकार स्वयं उसके मुख में प्रवेश नहीं करता। पुरुषार्थी एवं उद्यमी व्यक्ति अपने कर्म के बल पर भाग्य को भी बदल देने की क्षमता रखते हैं। विश्व की समस्त उन्नति एवं प्रगति का आधार मनुष्य का पुरुषार्थ ही है, भाग्य नहीं ।