अनुच्छेद लेखन : पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं


गोस्वामी तुलसीदास जी ने जो कुछ भी लिखा उसके पीछे गहरा चिंतन एवं अनुभूति थी। उनकी यह उक्ति- ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ अर्थात् पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख प्राप्त नहीं होता, जीवन की कसौटी पर खरी उतरती है। पराधीनता नरक के समान है। पराधीन के लिए दुख-सुख में कोई अंतर नहीं होता। वह पशु समान जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाता है। लोकमान्य तिलक ने कहा था- ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ मनुष्य ही क्या प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र रहना चाहता है। जंजीरों से बँधा-पशु और पिंजड़े में बंद पक्षी स्वतंत्र होने के लिए सदैव छटपटाते रहते हैं। इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी शक्तिशाली राष्ट्र ने अन्य राष्ट्रों को गुलाम बनाया तो वहाँ की जनता स्वतंत्रता के लिए छटपटा उठी और अपने प्राणों का मूल्य चुकाकर भी इसे प्राप्त किया तथा इसे लेकर रहे। स्वतंत्रता का अर्थ अपनी शक्तियों का उपयोग आत्मोन्नति एवं मानव-कल्याण के लिए करने में पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना है, न कि मनमाने ढंग से निर्बल को कष्ट पहुँचाना एवं गलत ढंग से स्वार्थ पूर्ति हेतु धन आदि इकट्ठा करना। पराधीनता मनुष्य के लिए अभिशाप है। इसमें मनुष्य का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। उसमें विचारों की स्वतंत्रता नहीं होती, आत्मोन्नति की ललक नहीं होती, उसकी अपनी इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं होता ऐसा व्यक्ति आलसी हो जाता है। उसकी मानसिक सोच कुंठित हो जाती है। उसकी खुशी दुख में बदल जाती है। पराधीनता उसे विकास के सभी सुखों से वंचित कर देती है। वास्तव में ईश्वर ने सभी को स्वतंत्र उत्पन्न किया है और वह स्वतंत्र ही जीना चाहता है।


अनुच्छेद लेखन : पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं