लेख : लोकतंत्र बनाम तानाशाही
लोकतंत्र बनाम तानाशाही
लोकतंत्र को जनतंत्र और गणतंत्र भी कहा जाता है। इसी तरह तानाशाही को एकतंत्र भी कहा गया है। लोकतंत्र और तानाशाही दोनों सर्वथा विपरीत दिशा में चलने वाले, परस्पर विलोम मानी गई शासन-व्यवस्थाएँ हैं। इनमें से लोकतंत्र को एक उत्कृष्ट एवं जनोपयोगी व्यवस्था मान कर अक्सर इस की प्रशंसा की जाती है। इसके विपरीत तानाशाही को सर्वाधिक निकृष्ट एवं जन-विरोधी राज्य – व्यवस्था मान कर प्रायः इसकी कटु आलोचना एवं निन्दा की जाती है।
जनतंत्र या लोकतंत्र में लोक या जन द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जन या लोक-जीवन का हित साधने, प्रगति एवं विकास के लिए शासन – व्यवस्था का संचालन किया करते हैं। यदि वे ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो पाते, तो पाँच वर्षों बाद जनमत के बल पर उन्हें सत्ता से हटाकर अन्य जन – सेवा का व्रत लेने वालों को शासन की बागडोर सम्हालने, उसे सुचारू रूप से चलाने का अवसर दिया जा सकता है। उसके भी असफल रहने पर अन्य लोग आ सकते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र में लोक – हित को सामने रख कर परिवर्तन का चक्कर अबाध एवं निरन्तर चलता रहता है।
लोकतंत्र की मूल अवधारणा के विपरीत तानाशाही या एक तंत्र में कोई चुस्त-चालाक और समर्थ व्यक्ति आकर एक सशक्त गुट बना कर, उसकी सहायता से प्रायः बलपूर्वक सत्ता हथिया लिया करता है, उसका चुनाव नहीं होता या उसे चुनाव जैसी प्रक्रिया से कभी नहीं गुजरना पड़ता। वह एक व्यक्ति प्रायः यह कह कर सेना आदि की सहायता से शासन की बागडोर सम्हाल सर्वेसर्वा बन बैठता है, क्योंकि पहली निर्वाचित सरकार जन – हित न कर हर तरह से भ्रष्ट हो गई थी, सो वह जन – हित की भावना से ही शासन – सूत्र अपने हाथ में ले रहा है। अपने पाँव गहराई तक जमाने के लिए आरम्भ में वह जन हित साधक कुछ घोषणाएँ तो किया ही करता है, उसके अनुसार दो-चार कदम भी उठा लिया करता है, ताकि जनमत का विश्वास अर्जित किया जा सके। पाँव जम जाने के बाद उसके लिए लोक या जन गौण हो जाया करते हैं, अपना और अपने गुट का हित – साधन ही सर्वोच्च हो जाया करता है। तानाशाह अक्सर अत्यधिक महत्त्वाकाँक्षी हुआ करता है। अपनी निरंकुश महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए वह देश – समाज को युद्धों की आग में झोंक देने से भी बाज़ नहीं आया करता। यदि वह लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी के समान विलासी भी हो, तो फिर पूरे देश में किसी भी युवती की इज्जत सलामत नहीं रह पाती। ऐसे विलासी तानाशाह के चमचे भी विलासी, महत्त्वाकाँक्षी एवं लुटेरे बन जाया करते हैं। फलतः लोक – जीवन सर्वथा उपेक्षित हो कर, लूट – पाट का शिकार बन दीन – हीन होता जाता है।
सत्ता पर काबिज तानाशाह फिर जीते जी सत्ता सुख त्यागने के लिए कतई तैयार नहीं हुआ करता, यह अलग बात है कि जन – हित और लोकलाज का ढिंढोरा पीट बन्दूक की नोंक पर बलपूर्वक उसे हटा कोई दूसरा चुस्त – चालाक व्यक्ति उसका स्थान ले; जैसा कि पड़ोसी देश पाकिस्तान में अब तक होता रहा और आगे भी होते रहने की सम्भावना है। यह बात भी ध्यातव्य है कि अक्सर तानाशाह आरम्भ में कुछ ही दिनों में यानि हालात के काबू आते ही चुनाव करा सत्ता लोक – नेताओं को सौंप देने के आश्वासन तो देते रहते हैं, पर सौंपते या चुनाव आदि प्रायः कभी भी करवाते नहीं। तानाशाही में चुनाव नहीं होते, अतः लोकतंत्री व्यवस्था के समान तानाशाह और शासन को बदला भी नहीं जा सकता।
लोकतंत्र में अपनी कुर्सी बचाए रखने की इच्छा और लोकमत के दबाव के कारण लोक – हित के काफी कार्य किए जाते हैं। उन से देश-जाति की प्रगति और विकास भी हुआ ही करता है। नेतृवर्ग और नौकरशाही की कुछ सक्रियता भी अवश्य बनी रहती है। किसी सीमा तक जनता की सुनवाई भी हुआ करती है। फिर प्रचार – प्रसार – मीडिया भी जनभावनाओं को शासक वर्ग के सामने उजागर करते रह कर उसकी नींद हराम किये रहता है, इस कारण भी शासन के सामने जन – हित के कार्य करते रहने की बाध्यता बनी रहती है। इसके विपरीत तानाशाही में तानाशाह और उस का गिरोह अपनी ही सुरक्षा एवं स्थायित्व के लिए अधिक चिन्तित रहा करता है, अपनी महत्त्वाकाँक्षाएँ एवं सुख – विलास की भावनाएँ मुख्य हो जाया करती हैं, उस पर किसी तरह का कोई दबाव भी नहीं रहा करता, इस कारण लोक – हित सर्वथा उपेक्षित हो कर रह जाया करता है।
इस तुलनात्मक विवेचन से लोकतंत्र और तानाशाही दोनों का अन्तः-बाह्य समग्र स्वरूप
सारी गतिविधियों और सम्भावनाओं के साथ स्पष्ट है। यह भी स्पष्ट है कि लोकतंत्र को क्यों
अच्छा माना जाता है। यह भी ध्यातव्य है कि लोकतंत्र में व्यक्ति की हर तरह की स्वतंत्रता,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी बनी रहा करती है, जब कि तानाशाही में किसी को कुछ कहने – करने की स्वतंत्रता कतई नहीं हुआ करती। स्वतंत्रता से बढ़ कर और कुछ नहीं और उसकी रक्षा केवल लोकतंत्र में ही संभव हुआ करती है। अतः आमजन का इच्छित शासनतंत्र लोकतंत्र ही है, तानाशाही नहीं।