दशावतार: मत्स्यावतार
प्राचीन काल में सत्यव्रत नाम के एक राजा थे। वे बड़े ही उदार और भगवान के परम भक्त थे। एक दिन वे कृतमाला नदी में तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजुलि में एक छोटी सी मछली आ गई। उसने अपनी रक्षा की पुकार की।
उस मछ्ली की बात सुनकर राजा उसे कमण्डल में अपने आश्रम ले आए। कमण्डल में वह इतनी बढ़ गई कि पुनः उसे एक बड़े मटके में रखना पड़ा। थोड़ी देर बाद वह उससे भी बड़ी हो गई और मटका छोटा पड़ने लगा। अंत में राजा सत्यव्रत हार मानकर उस मछली को समुद्र में छोड़ने गए।
समुद्र में डालते समय मत्स्य ने राजा से कहा– “राजन! समुद्र में बड़े-बड़े मगर आदि रहते हैं। वे मुझे खा जाएंगे। इसलिए मुझे समुद्र में न छोड़ें।” मछली की यह मधुर वाणी सुनकर राजा मोहित हो गए। उन्हें मत्स्य भगवान की लीला समझते देर न लगी। वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
मत्स्य भगवान ने अपने प्यारे भक्त सत्यव्रत से कहा – “सत्यव्रत! आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलयकाल की जलराशि में डूबने लगेंगे। उस समय मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आएगी। तुम सभी जीवों, पौधों और अन्न आदि के बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस पर बैठकर विचरण करना। जब तेज आंधी चलने के कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूप में आकर तुम लोगों की रक्षा करूंगा।” भगवान राजा से इतना कहकर अंतर्ध्यान हो गए।
अंत में वह समय आ पहुंचा। राजा सत्यव्रत के देखते ही देखते सारी पृथ्वी पानी में डूबने लगी। राजा ने भगवान की बात याद की। उन्होंने देखा कि नाव भी आ गई है। वे बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ तुरंत नाव पर सवार हो गए।
सप्तर्षियों की आज्ञा से राजा ने भगवान का ध्यान किया। उसी समय समुद्र में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हुए। ततपश्चात भगवान ने प्रलय के समुद्र में विहार करते हुए सत्यव्रत को ज्ञान और भक्ति का उपदेश दिया।
हयग्रीव नाम का एक राक्षस था। वह ब्रह्मा जी के मुख से निकले हुए वेदों को चुराकर पाताल में छुपा हुआ था। भगवान मत्स्य ने हयग्रीव को मारकर वेदों का भी उद्धार किया।
समस्त जगत के परम पूज्य मत्स्य भगवान को हमारा प्रणाम _/\_