चित्र देखकर कहानी सुनाना (मौखिक अभिव्यक्ति)
चित्र देखकर कहानी सुनाना
किसी प्रसिद्ध घटना या कहानी से संबंधित चित्रों को देखकर उससे जुड़ी कहानी या घटना को अपने शब्दों में सुनाना एक कला है। इसमें सबसे पहले स्मरण शक्ति से उन चित्रों को जाँचा व परखा जाता है। उसके बाद कल्पनाशीलता से उस घटना कहानी को रचा जाता है। रची हुई घटना को उचित संवादों व भावों के साथ अपने शब्दों में अभिव्यक्त किया जाता है। आइए, ऐसी ही कुछ चित्रात्मक कहानी व घटनाओं को हम देखें :
चित्रावली – 1
द्रोणाचार्य अपनी धनुर्विद्या के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। अनेक राजा तथा राजपुत्र उनसे धनुर्विद्या सीखने की इच्छा रखते थे। एक बार भील बालक एकलव्य भी उनके पास आया। द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य बनाने से इंकार कर दिया। उन्होंने सोचा, यह भील है। यदि यह धनुर्विद्या में प्रवीण हो गया, तो अपनी विद्या का दुरुपयोग करेगा तथा लोगों को कष्ट पहुँचाएगा। द्रोणाचार्य के मना करने पर एकलव्य उन्हें प्रणाम कर वन में चला आया। वहाँ उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक मूर्ति बनाई और अभ्यास करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार श्रद्धा और पूर्ण एकाग्रता से अभ्यास करते-करते वह बाण चलाने में प्रवीण हो गया।
एक दिन कौरव और पांडव वन में शिकार खेलने निकले। उनके साथ एक कुत्ता भी था। राजकुमार शिकार के लिए वन में इधर-उधर भटक रहे थे। कुत्ता घूमता-घामता भील कुमार की ओर जा निकला।
भील-कुमार को देखकर कुत्ता भौंकने लगा। भील-कुमार ने बड़ी फुर्ती से एक साथ कई तीर कुत्ते पर छोड़े। वह भी इस कौशल से कि उसका मुँह तीरों से भर गया और भौंकना बंद हो गया, परंतु एक भी तीर उसके मुँह या शरीर में नहीं लगा। कुत्ता उसी दशा में राजकुमारों के पास आया। उसे देखकर राजकुमारों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे बाण मारने वाले के इस अद्भुत कौशल की प्रशंसा करने लगे। वे तीर मारने वाले को ढूँढ़ते हुए एकलव्य के पास पहुँचे और पूछा- “तू कौन है, और किससे तूने धनुर्विद्या सीखी?”
एकलव्य बोला-“वीरो, मैं भीलराज हिरण्यधनुष का पुत्र और द्रोणाचार्य का शिष्य हूँ। मेरा नाम एकलव्य है। यहाँ धनुर्विद्या का अभ्यास करता हूँ।”
राजकुमारों ने घर पहुँचकर पूरी बात गुरु द्रोणाचार्य को सुना दी। द्रोणाचार्य को चिंता हुई; यदि यह भील-बालक बाणविद्या में इतना निपुण हो जाएगा, तो अपनी इच्छा से काम करेगा और इसे कोई जीत भी न सकेगा। यह सोचकर वह तुरंत वन में गए।
एकलव्य ने द्रोणाचार्य को देखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोला- “महाराज, मैं आपका शिष्य एकलव्य हूँ।” द्रोणाचार्य ने कहा -‘“यदि तू मेरा शिष्य है, तो मेरी गुरु-दक्षिणा दे।”
एकलव्य प्रसन्न होकर बोला- “महाराज, जो आज्ञा करें भेंट करूँ।”
द्रोणाचार्य ने कहा- “मुझे अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर दे।”
द्रोण की ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर एकलव्य जरा भी न घबराया। बिना किसी हिचक के उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने सीधे हाथ का अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया।
उस दिन से एकलव्य केवल उँगलियों से ही अभ्यास करने लगा, परंतु अँगूठे के न होने से वह धनुर्विद्या में अर्जुन से बढ़कर न हो सका।
चित्रावली-2
महाभारत का युद्ध हो रहा था। गुरु द्रोणाचार्य कौरव सेना का नेतृत्व कर रहे थे। पांडव बहुत चिंतित थे, क्योंकि द्रोण उनके भी गुरु थे। वे शस्त्रकला में बहुत निपुण थे। अतः कुंती के पुत्र जानते थे कि युद्ध में उन्हें पराजित करना बहुत कठिन होगा। युद्ध का डंका बजते ही दोनों विशाल सेनाएँ एक-दूसरे के समक्ष खड़ी हो गईं। पांडवों ने अपने गुरु को प्रणाम किया और उनका आर्शीवाद लिया, फिर युद्ध आरंभ हो गया। दोनों सेनाएँ एक- -दूसरे पर टूट पड़ीं। दोनों ओर महान योद्धा थे । अतः वार पर वार होने लगे, किंतु गुरु द्रोण के नेतृत्व में कौरवों ने पांडवों के छक्के छुड़ा दिए। उनके युद्ध-कौशल के कारण न भीम की गदा का कुछ प्रभाव हो रहा था, न तो अर्जुन के तीर सही लग रहे थे।
जब शत्रुओं ने अर्जुन को घायल कर दिया, तो उनके सारथी, श्री कृष्ण ने रथ मोड़ लिया। वे शीघ्रता से अर्जुन के बड़े भाई युधिष्ठिर के पास गए और बोले, “धर्मराज! जब तक आचार्य द्रोण युद्ध-भूमि से नहीं हटेंगे, तब तक पांडवों की विजय असंभव है। अब आपको ही अपनी सेना की रक्षा करनी पड़ेगी।”
युधिष्ठिर बहुत चिंतित थे। घायल अर्जुन को देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वे चिंतित स्वर में बोले, “हे भगवन्! जब मेरे शक्तिशाली भाई भीम और अर्जुन की शस्त्र कला किसी काम नहीं आई, तो मैं सेना की रक्षा कैसे कर सकता हूँ?”
उनका धैर्य बँधाते हुए कृष्ण बोले, “आपको एक चाल चलनी होगी। सबसे आप यह कह दो कि अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार पाते ही आचार्य युद्ध-भूमि छोड़ देंगे।”
आश्चर्यचकित होकर युधिष्ठिर बोले, “हे ईश्वर…! आप मुझसे झूठ बोलने को कह रहे हैं! नहीं, नहीं, धर्म के विरुद्ध कार्य, मैं नहीं करूँगा।”
“लेकिन इस समय धर्म का नहीं, पांडव-सेना की विजय का प्रश्न है” कृष्ण ने समझाया। “नहीं, स्वामी!” युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर नम्रता से कहा “चाहे कुछ भी हो जाए, मैं झूठ नहीं बोलूँगा। असत्य से मिली विजय मुझे नहीं चाहिए।”
उसी समय भीम ने अपनी गदा से एक हाथी को मार दिया। उस हाथी का नाम भी अश्वत्थामा था। भीम गदा उठाकर ज़ोर से चिल्लाया, “अश्वत्थामा मारा गया।” यह सुनते ही आचार्य द्रोण बहुत दुखी हो गए, लेकिन उनके मन में संदेह था। शायद भीम ने युद्ध क्षेत्र से मुझे हटाने के लिए यह कहा हो। मैं युधिष्ठिर से पूछता हूँ। वह तो कभी झूठ नहीं बोलता।”
यह सोचकर गुरु युधिष्ठिर के पास गए। क्या भीम ने ठीक कहा है? उन्होंने पूछा।
युधिष्ठिर के लिए, यह एक संकट का समय था। वे धर्म के पुजारी थे। अतः असत्य नहीं बोल सकते थे, किंतु सच बोलने का परिणाम भी उन्हें मालूम था – पांडव सेना की पराजय।
श्री कृष्ण उनकी चिंता को समझ गए। उन्होंने धीरे से कहा, “युधिष्ठिर! अश्वत्थामा नाम का हाथी तो मारा ही गया है। इसलिए आप आचार्य से कह दीजिए कि अश्वत्थामा मारा गया है, किंतु वह गुरु पुत्र नहीं, हाथी था।”
युधिष्ठिर ने सोचा, “यह तो सत्य है। इसे कहने में क्या हानि है?” इसलिए उन्होंने आचार्य से वही कह दिया। कृष्ण उनके पास खड़े थे। जैसे ही युधिष्ठिर ने कहा अश्वत्थामा मारा गया है वैसे ही, उन्होंने शंख बजा दिया। शंख ध्वनि के कारण गुरु द्रोण उनका दूसरा वाक्य नहीं सुन सके। युधिष्ठिर के मुख से सुनकर उन्हें विश्वास हो गया कि उनके पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु हो गई है। वे शस्त्र छोड़कर चले गए। उनके जाते ही पांडवों ने कौरवों को पराजित कर दिया।