लेख – गांधीवाद बनाम समाजवाद
संसार के प्रत्येक क्षेत्र में अनेक प्रकार के वाद प्रचलित हैं। कुछ का आधार भाव है तो कुछ का कोई विचार। इसी तरह कुछ वाद व्यक्तियों के नाम से, उनकी विचारधारा को प्रतिबिंबित करने के लिए भी अस्तित्व में आए हैं। मार्क्सवाद, गांधीवाद जैसे कुछ वाद व्यक्ति – आधारित हैं, जबकि समाजवाद एक विशिष्ट विचारधारा को रूपायित करने वाला वाद है। गांधीवाद का मूल आधार है अहिंसा, सादगी, प्रेम, भाईचारा, सत्य के प्रति आग्रह और सादगी। इन सबका समग्र रूप है मानवीयता का उच्च भाव। इसमें व्यष्टि और समष्टि दोनों का सामान मूल्य एवं महत्त्व स्वीकार किया गया है। इस कारण सहिष्णुता और समानता का भाव भी गांधीवाद के अंतर्गत आ जाता है।
समाजवाद मूलतः समष्टिवादी चेतना पर आधारित वाद है। लेकिन आजकल कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित, सिद्धांतों, मान्यताओं, समानता, सहकारिता जैसी अनेक बुनियादी बातें गांधीवाद और समाजवाद में एक सी कही या मानी जा सकती हैं। व्यक्ति और उसकी मानवीयता की मूल अवधारणा को भी ये दोनों वाद एक – जैसा ही महत्त्व देते हैं। फिर भी दोनों में एक बुनियादी अंतर पाया जाता है। वह यह कि गांधीवाद की चेतनागत अवधारणा आध्यात्मिकता और उसकी प्रवृत्तियों पर आधारित है, जबकि समाजवाद की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर। गांधी बाहर से भीतर की ओर अर्थात भौतिकता की उपेक्षा का आत्म तत्व के चिंतन विकास की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं, जबकि कार्ल मार्क्स आदि समाजवादी चिंतक आतम तत्व को प्रत्यक्षतः कोई महत्त्व न देकर बाहिरी अर्थात संसार के भौतिक तत्वों के चिंतन – विकास को महत्त्व देने वाले हैं। जहां तक श्रम का प्रश्न है, इसका महत्व एवं मूल्य दोनों ने स्वीकार किया है। हां, गांधी श्रमाश्रित सादा जीवन जीने की बात करते हैं, जबकि समाजवादी श्रम और पूंजी के समान विभाजन पर बल देते हैं। गांधी पूंजीपति को पूंजी का मालिक नहीं बल्कि ट्रस्टी यानी संरक्षक मात्र मानने पर बल देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि जिसके पास पूंजी है उसे अपने आपको उसका ट्रस्टी मानकर वह सब कुछ जीवन और समाज – हित के कार्यों के लिए अर्पित कर देना चाहिए। इसके विपरीत समाजवादी पूंजी पर एकाधिकार को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसे समाज की संपत्ति मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि पूंजीपति वर्ग यदि स्वेच्छा से समाज हित में पूंजी नहीं लगाता तो वह उससे छीन ली जानी चाहिए।
गांधीवाद सादगी पर बल देता है। इच्छाओं का विस्तार करने से रोकता है। संयम और आत्मानुशासन आवश्यकता स्वीकारता है। इसके विपरीत भौतिक दृष्टि के कारण समाजवाद सबको सभी भौतिक वस्तुएं मिलने – पाने के अधिकार के सिद्धांत की स्थापना करता है। गांधीवाद उतना लोक पर ध्यान ना दे, परलोक सुधार को जरूरी मानता है, जबकि समाजवाद लोक को ही सब कुछ मानता है। गांधीवाद में सत्य का आग्रह करके हृदय – परिवर्तन पर बल दिया गया है, जबकि समाजवाद सशस्त्र क्रांति एवं प्रत्याक्रमण करके छीन लेने या अधिकार कर लेने की प्रक्रिया पर बल देता है। गांधी दूसरों के भले के लिए अपने स्वार्थों को त्याग देने को तत्पर दिखाई देते हैं, जबकि समाजवाद में त्याग – तपस्या जैसी किसी बात का प्रावधान नहीं।
गांधीवाद हर व्यक्ति के विकास के लिए परंपरागत उद्योग – धंधों, अपने साधनों और साधनों की पवित्रता पर बल देते थे। उनके द्वारा चरखा कातने की परंपरा डालना नीति – व्यवहारगत बातों का प्रतीक है। इसके विपरीत समाजवाद ऐसा कुछ ना मान बड़ी और लंबी छलांग लगाने पर विश्वास करता रहा है। साथ ही साधन चाहे कैसे भी क्यों ना हों, समाजवाद उनकी पवित्रता, अपवित्रता को नहीं परिणाम को ही महत्वपूर्ण मानता है। इसी कारण गांधीवाद अहिंसा का मार्ग अपनाता है, जबकि समाजवाद अहिंसा की बात न कर आवश्यकतानुसार हिंसा को भी आवश्यक या बुरा नहीं मानता।
जहां तक मूल उद्देश्य का प्रश्न है, गांधीवाद हो या समाजवाद; कहने का अन्य सभी वादों का भी मूल एवं मुख्य उद्देश्य एक है। वह है सर्वतोभावने व्यापक मानवता का हित – साधन। हां, इस हित -साधन के लिए गांधीवाद किसी भी तरह की छीना झपटी पर विश्वास नहीं रखता। वह हस्तशिल्पों हस्तकलाओं को प्रश्रय देने का पक्षपाती है। इसके विपरीत समाजवाद छीना – झपटी से परहेज नहीं करता। वह हस्तशिल्प आदि को आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त एवं पर्याप्त न मान बड़े-बड़े कल – कारखाने स्थापित करने, औद्योगीकरण, यंत्रीकरण आदि का पक्षपाती है।
इस प्रकार इन तो प्रमुख वादों का बुनियादी अंतर स्पष्ट है। गांधी के देश भारत की यह त्रासदी ही कही जाएगी कि यहाँ नाम तो हर स्तर पर गांधी का ही लिया जाता है, पर आचरण – व्यवहार उसके सर्वथा विपरीत तथाकथित समाजवादी या जाने कौन से वाद के ढंग से हो रहा है। निश्चय ही दुःखद स्थितियों का एक बहुत बड़ा कारण यह अस्पष्टता ही है।