कविता : बचपन से बुढ़ापे तक
बचपन से बुढ़ापे तक
हर घड़ी औलाद की खातिर दुआ करती है माँ
और माँ होने का ऐसे हक अदा करती है माँ
जिंदगी की धूप में खुद को खड़ा करती है वो
और बच्चों के लिए साया घना करती है माँ
घर में बूढ़े बाप से अक्सर उलझ जाती है वो
लड़ के भी बेटों के हक में फैसला करती है माँ
जब तलक बाहर से बेटा लौटकर आता नहीं
आँख चौखट पर लगाए रतजगा करती है माँ
उम्र काफी है मेरी ये शुक्र है माँ मेरी अब भी है
इस उम्र में भी नजर का टोटका करती है माँ