कविता : दुख न दें
दुख न दें भले सुख ना दें
संबंध नहीं है माँ, केवल संपर्क नहीं है।
आदर्श है जीवन का केवल संबोधन नहीं है।
जन्मदात्री है वो मात्र इंसान नहीं है।
व्यक्तित्व बनाती है, केवल पहचान नहीं है।
ममता की प्रतिमा नारी का एक रूप नहीं है,
स्नेह की छाया, कठोरता की धूप नहीं है।
हृदय है इसका प्रेम का सागर, जिसकी कोई थाह नहीं है।
आघातों से पीड़ित है फिर भी मुख पर आह नहीं है।
आघात जो मिले हैं अपनों से, सहने के अतिरिक्त राह नहीं है।
दंडित करने की भी अधिकारी है, मात्र क्षमा का प्रवाह नहीं है।
कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ अधिकारों का दावा करते हैं।
संतान के रक्षण हेतु माता न जाने क्या-क्या करती है,
पीड़ाओं को सहकर भी आँचल की छाया देती है।
कभी देवकी बनकर वो निरपराध ही दंड भोगती है,
कभी अग्नि परीक्षा से सीता सी बन जाती है।
हर संतान से आज है मेरा नम्र निवेदन,
कृतघ्न हैं वो जो माता को आहत करते हैं,
दुःख न दें, भले न दें सुख का आँगन।