कविता : जलाओ दिये


जलाओ दिये – गोपालदास ‘नीरज’


जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,

उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,

निशा की गली में तिमिर राह भूले

खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,

उषा जा न पाए, निशा आ न पाए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,

कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,

मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,

कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी

चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,

भले ही दिवाली यहाँ रोज़ आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,

नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा;

उतर क्यों न आएँ नखत सब गगन के,

नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,

कटेगी तभी यह अँधेरी घिरी, जब

स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

गोपालदास ‘नीरज’


कठिन शब्दों के अर्थ


धरा = धरती, पृथ्वी (Earth)

ज्योति = प्रकाश (Light)

मर्त्य = नश्वर, मरणशील (Mortal)

निशा = रात, रात्रि (Night)

तिमिर = अँधेरा (Darkness)

उषा = सवेरा (Dawn)

सृजन = निर्माण (Creation)

मनुजता = मानवता (Humanity)

दीप्ति = चमक, आभा (Lustre)

नखत = नक्षत्र, तारे (Stars)

गगन = आकाश (Sky)