अनुच्छेद लेखन : तुलसी असमय के सखा धीरज, धर्म, विवेक
मनुष्य के जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता। सुख-दुख, आशा-निराशा, रोग-शोक, हँसी और आँसू आदि मानव-जीवन के साथ उसी तरह लगे रहते हैं, जैसे दिन के पीछे रात, रात के पीछे दिन। सुख-दुख का जो भाग हमारे लिए बना है, उसे हमारे सिवा कोई नहीं भोग सकता। व्यक्ति को इन्हें धैर्यपूर्वक, धर्मपूर्वक और प्रसन्नता से भोगना चाहिए। तुलसीदास की इस सूक्ति का अर्थ है-बुरा समय आने पर मनुष्य का अपना धीरज, मानवीय धर्म और कर्तव्य, अपना विवेक ही सच्चे मित्र का काम करते हैं। धीरज का वास्तविक अर्थ है – प्रत्येक स्थिति में मन-मस्तिष्क का संतुलन बनाए रखना। विपरीत परिस्थिति में मनुष्य को जरा भी विचलित नहीं होना चाहिए। कष्टों का डटकर सामना करना, हमेशा प्रसन्न रहने की कोशिश करते रहना भी धीरज का ही लक्षण होता है। धर्म का अर्थ जाति-पाति को मानना या पूजा-पाठ करना नहीं होता, बल्कि अपना तथा मनुष्य मात्र का भला कर पाने में समर्थ उचित कर्मों तथा कर्तव्यों का पालन करना है। कर्म रूपी धर्म का पालन करने से आदमी असमय के कष्ट से एक न एक दिन अवश्य छुटकारा पा लेता है। इसी कारण तुलसीदास बुरे समय में भी धैर्यपूर्वक धर्म-कर्म करते रहने की बात पर बल देते हैं। विवेक का अर्थ है – अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित, सत्य-असत्य का निर्णय कर पाने की क्षमता। विषम और विनाशकारी स्थिति से बचने के लिए असमय में विवेक का दामन न छोड़ने की बात कही गई है। उसे असमय काल का एक सच्चा मित्र कहा गया है। जैसे सच्चा और अच्छा मित्र नेक सलाह देकर नेकी की राह पर डालकर मुसीबतों से बचा लेता है, उसी प्रकार विवेक-शक्ति असमय आनेवाले कष्टों से आदमी की रक्षा किया करती है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि प्रत्येक परिस्थिति में धीरज के साथ कर्तव्य रूपी धर्म का विवेकपूर्ण तरीके से पालन करता रहे। ऐसा करनेवाला व्यक्ति सरलता से असमय की मार से अपना बचाव कर लेता है। जैसे सच्चे मित्र की सहायता सभी विपत्तियों से छुटकारा दिलाती है, उसी प्रकार धीरज-धर्म-विवेक भी मनुष्य के लिए हितकर हुआ करते हैं।