कविता : पर्वत प्रदेश में पावस


पर्वत प्रदेश में पावस – सुमित्रानंदन पंत


कविता का सारांश

‘पर्वत प्रदेश में पावस’ नामक कविता ‘वारिद’ से संकलित पंत जी की कविता है। सुमित्रानंदन पंत जी का पर्वतीय प्रदेश से गहरा सम्बन्ध था। भला कौन होगा जिसका मन पहाड़ों पर जाने को न मचलता हो। जिन्हें सुदूर हिमालय तक जाने का अवसर नहीं मिलता वे भी अपने आसपास के पर्वत प्रदेश में जाने का अवसर शायद ही हाथ से जाने देते हों। ऐसे में कोई कवि और उसकी कविता बैठे-बैठे ही वह अनुभूति दे जाए जैसे वह अभी-अभी पर्वतीय अंचल में विचरण करके लौटा हो तो इससे अधिक आनंद का विषय क्या हो सकता है!

प्रस्तुत कविता में ऐसे ही रोमांच और प्रकृति के सौंदर्य को अपनी आँखों से निहारने की अनुभूति होती है। यही नहीं, सुमित्रानंदन पंत की कविताएँ पढ़ते हुए यही अनुभूति होती है कि मानो हमारे आसपास की सभी दीवारें कहीं विलीन हो गई हों। हम किसी ऐसे रम्य स्थल पर आ पहुँचे हैं, जहाँ पहाड़ों की अपार श्रृंखला है, आस-पास झरने बह रहे हैं और सब कुछ भूलकर हम उसी में लीन रहना चाहते हैं।

वर्षा ऋतु है। पर्वतीय प्रदेश में प्रकृति हर क्षण अपने स्वरूप को बदलकर नया वेश धारण कर रही है। मेखलाकार पर्वत श्रेणियों के तलहटी में जल प्रपात, झीलों (तालाब) के जल में गिरने की आवाज पर्वत के विद्यमान होने का प्रमाण दे रहे हैं। पर्वतों से गिरने वाले झरने झागों से युक्त होकर बह रहे हैं। पर्वतों के हृदय पर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष आकाश की ओर एकटक झाँक रहे हैं। अचानक पहाड़ों पर विशाल आकार के बादल बहुत भयानक स्वर में गरजना शुरू कर देते हैं। गहरे कोहरे के कारण तालाब से धुआँ उठता दिखाई दे रहा है। मूसलाधार वर्षा होने के कारण दृश्य ओझल हो जाता है, केवल झरनों का स्वर ही सुनाई दे रहा है।